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________________ तीत अवस्था, परमात्मा की प्राप्ति की अवस्था तथा परम शान्ति की अवस्था कहा है। लोक-कल्याण को ध्यान में रखकर ही गीता ने कहा है कि कर्मसंन्यास से कर्मयोग प्रधिकं अच्छा है (26, 52)। लोकापेक्षा ज्ञानयोगी से कर्मयोगी श्रेष्ठ है । गीता ने कर्मयोगी को त्रिगुणातीत भी कहा है तथा परमात्मा की भक्ति में लीन भी कहा है। एक अर्थ में कर्मयोगी त्रिगुणातीत भी है तथा भक्तयोगी भी है। तीनों ही उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् लोककल्याण में संलग्न रहते हैं । इस तरह से गीता का कर्मयोगी, त्रिगुणातीत और भक्तयोगी एक वर्ग के हैं और ज्ञानयोगी और कर्मसंन्यासी दूसरे वर्ग के । प्रथम वर्ग के योगी लोक-कल्याण के कर्मों में संलग्न रहते हैं और समाज को दिशा-निर्देश देते हैं, किन्तु दूसरे वर्ग के योगी समाज के लिए किसी प्रकार का कोई कर्म नहीं करते है और इस तरह सभी प्रकार के कर्मों को त्याग देते हैं । मानयोगी बह्यापेक्षा कर्मसंन्यासी होता है और कर्मसंन्यासी अन्तरंगापेक्षा ज्ञानयोगी है। मामयोगी = (कर्मयोगी-कर्म), कर्मयोगी = (ज्ञानयोगी + कर्म) तथा कर्मसंन्यासी = . (कर्मयोगी-कर्म) कहे जा सकते हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि (प्रात्मानुभव प्रादि की) उच्चतम अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् कर्मयोगी, त्रिगुणातीत, भक्तयोगी, ज्ञानयोगी तथा कर्मसंन्यासी की बुद्धि स्थिर हो जाती है । अतः इनको सामानरूप से स्थितना भी कहा जा सकता है । लोक-कल्याण के कर्मों को करता हुआ स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी कहलाता है और उन कर्मों से जो विमुख रहता है वह स्थितप्रज्ञ ज्ञानयोगी कहा जा सकता है। जैसे कर्मयोगी, त्रिगुणातीत तथा भक्तयोगी गीता के आदर्श महायोगी है, उसी प्रकार स्थितप्रज्ञ की अवस्था भी प्रादर्श के रूप में vi ] : [ गीता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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