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________________ 34. 32. हे अर्जुन ! यद्यपि मेरे (परमात्मानुभवो के लिए तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है (तथा) (जो) (वस्तु) प्राप्त की जानी चाहिए (वह) अप्राप्त नहीं (है), (तथापि) (मैं) कर्म में ही डटा रहता हूँ। 33. यदि मैं जागरूक (होकर) किसी (भी) समय कर्म . में ही न डटा रहूँ,(तो) हे अर्जुन ! सर्वत्र मनुष्य मेरे (ही) आचरणक्रम का अनुसरण करेंगे। हे अर्जुन ! जैसे कर्म में आसक्त अज्ञानी (व्यक्ति) (कर्म) करते हैं, वैसे ही अनासक्त ज्ञानी लोक-कल्याण को करने की इच्छावाला (होकर) (कर्म) करे। 35. ज्ञानी (व्यक्ति) कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में विकार उत्पन्न न करे । परमात्मा में लीन योगी (अनासक्त) (व्यक्ति) सब कर्मों का (स्वयं) भली-भांति आचरण करता हुआ (दूसरों को भी) (उनका) अभ्यास करावे । 36. (सच तो यह है कि) सर्वत्र प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म किए जाते हुए (होते हैं) । (तो भी) अहंकार से मोहित व्यक्ति इस प्रकार मान लेता है (कि) मैं (ही) (उनका) करनेवाला हूँ। 37. किन्तु हे अर्जुन ! गुण और कर्म के (प्रात्मा से) भेद को यथार्थ से जाननेवाला इस प्रकार मानकर कि गुण गुणों में ही घटित होते रहते हैं, उनमें आसक्त नहीं होता है। 38. प्रकृति के गुणों से मोहित (व्यक्ति) गुण और कर्मों में आसक्त '. होते हैं। उन अपूर्ण जानकार मूखों को पूर्ण जानकार (व्यक्ति) (कर्म न करके) न भटकाए । चयनिका 15 ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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