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111. ज्ञानरूपी यज्ञ के द्वारा पूजा करते हुए (कुछ लोग) अद्व तता
से चारों ओर मुख (किए हुए) मुझको उपासते हैं, दूसरे भेदता से और (कई) बहुत प्रकार से भी (उपासते हैं)।
112. जो मनुष्य (मेरा) ध्यान करते हुए (मेरे में) एकाग्र (है),
(वे) मेरी उपासना करते हैं। उन (मेरे में) निरन्तर दत्तचित्तों के कल्याण की मैं देखभाल करता हूँ।
113. जो (व्यक्ति) मेरे लिए फूल की पत्ती, फूल, फल (एवं) जल
को भक्तिपूर्वक अर्पण करता है, (तो) (उस) संयमी व्यक्ति की भक्ति से अर्पित उस (वस्तु) का मैं उपभोग करता हूँ।
114. हे अर्जुन ! (तू) जो करता है, जो खाता है, हवन करता
है, जो दान करता है (और) जो तपस्या करता है, (तू) उसको मेरे अर्पण कर ।
115. इस प्रकार (तू) शुभ-अशुभ फल से (तथा) कर्म-बन्धन
से छूट जायेगा । (और), (बन्धन से) मुक्त व्यक्ति जो अर्पण-साधना से युक्त (है), मुझे प्राप्त कर लेगा।
116. मैं सब प्राणियों में समता-युक्त (हूँ); मेरे लिए न (कोई)
घृणित है (और) न (कोई) प्रिय । परन्तु जो मेरी भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, वे मेरे में (रहते हैं) और मैं भी उनमें (रहता हूँ)
चयनिका
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