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________________ 123. (परमात्मा के दिव्य स्वरूप को देखकर अर्जुन ने कहा ) यदि आकाश में सूर्यों की बहुत बड़ी संख्या के द्वारा एक ही समय में उत्पन्न हुई आभा होवे, तो भी वह (आभा) उस परमात्मा की आभा के समान शायद (ही) (हो) । 124. आप परम आत्मा माने जाने योग्य ( हैं ), आप इस विश्व के सर्वोत्तम आधार (हैं), आप शाश्वत मूल्यों के रक्षक ( हैं ), आप अविनाशी ( हैं ) तथा आप शाश्वत परमात्मा ( हैं ) । मेरे द्वारा (आप) इस प्रकार समझे गए ( हैं ) । 125. परन्तु हे शूरवीर अर्जुन ! (मेरा) ऐसा (रूप) एकाग्र भक्ति से अनुभव किया और देखा जा सकता है तथा मैं वास्तव में पहुँचा जा ( सकता हूँ ) । 126. हे अर्जुन ! (जो) मेरे में निष्ठावान् (है) जो मेरे लिए ( ही ) कर्मों का करनेवाला (है), जो मेरा आराधक ( है ), ( जो ) ( फल में ) प्रासक्ति से रहित (है) और (जो) सब प्राणियों में स्नेह-युक्त है, वह मुझ को प्राप्त करता है । 127. इस प्रकार जो आराधक निरन्तर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए आपकी उपासना करते हैं और जो (आराधक) केवल शाश्वत (और) अव्यक्त की (उपासना करते हैं), उनमें से योग के उत्तम जानकार कौन हैं ? 128. जो (प्राराधक) मेरे में मन को नियन्त्रित करके श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त (होकर) निरन्तर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे द्वारा सर्वोत्तम योगी कहे गए हैं । चयनिका Jain Education International For Personal & Private Use Only 47 ] www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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