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129. और जो इन्द्रिय-समूह को भली प्रकार से नियन्त्रित करके 330. (उस) अविनाशी, अवर्णनीय, अदृश्यमान, सर्वव्यापक,
कल्पनातीत, अपरिवर्तनीय, गतिहीन और शाश्वत (परमात्मा) की उपासना करते हैं, (तथा) जो हर समय समतायुक्त बुद्धिवाले (होते हैं) (और) सब प्राणियों के कल्याणं में संलग्न (रहते हैं), वे (भी) मुझको ही प्राप्त करते हैं।
131. अदृश्यमान (की साधना) में लगे हुए उन चिन्तनशील
उपासकों के (मन में) दूसरे (दृश्य की उपासना करने वालों) की अपेक्षा बहुत कष्ट (होता है), क्योंकि मनुष्यों द्वारा अव्यक्त (उपासना का) पथ कठिनाई से पकड़ा जाता है।
132. (तू) मेरे में ही मन को जमा, (मेरे में) (ही) बुद्धि को
लगा, इसके पश्चात् (तू) मेरे में ही निवास करेगा। (इसमें) (कोई) संशय नहीं है ।
133. हे अर्जुन ! यदि (तू) श्रद्धालु चित्त को मेरे में एकाग्र नहीं
कर सकता है, तो अभ्यास विधि से मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर।
134. (यदि) (तू) अभ्यास (करने) में भी सक्षम नहीं है, (तो) मेरे
लिए कर्म करने में श्रेष्ठ हो, क्योंकि मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी (तू) पूर्णता को प्राप्त कर लेगा।
वयनिका
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