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77. जब नियन्त्रित चित्त आत्मा में ही टिकता है (तथा) ___ (व्यक्ति) सभी इच्छाओं से रहित (होता है), तब परमात्मा
में लीन कहा जाता है।
78. जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में विद्यमान दीपक हिलता
डुलता नहीं है, वही समानता आत्मा के ध्यान को लगाते हुए योगी के नियन्त्रित चित्त की कही गई है।
79. जहाँ (आत्मा के ध्यान में) योग के अभ्यास से नियन्त्रित
चित्त शान्त हो जाता है और जहाँ व्यक्ति आत्मा के द्वारा
आत्मा को देखता हुआ आत्मा में ही तृप्त हो जाता है, (उस) (योग नाम वाली अवस्था को जानना चाहिए)।
80. जो सुख अतीन्द्रिय (होता है), वह स्थायी (होता है) और
प्रज्ञा द्वारा समझने योग्य (होता है), (ध्यान में) स्थित यह (योगी) (जब अतीन्द्रिय सुख को) अनुभव कर लेता है, (तो) (वह) वास्तविकता (सत्य) से बिल्कुल ही विचलित नहीं होता है।
81. जिस (अवस्था) को प्राप्त करके (जब) (व्यक्ति) दूसरे . (किसी भी) लाभ को उस (अवस्था)से अधिक (ग्रहणीय)
नहीं मानता है और जिस (अवस्था) में स्थित व्यक्ति अत्य-. धिक दुःख के द्वारा भी (जब) विचलित नहीं किया जाता है, (तो) (व्यक्ति की वह अवस्था योग (प्रात्मानुभव) की अवस्था कही जाती है)।
चयनिका
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