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विश्वतत्त्वप्रकाशः
ने उन सूत्रों पर वृत्ति लिखी थी यह स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों के उल्लेखों से ज्ञात था । अविद्धकर्ण के भी उल्लेख कुछ बौद्ध ग्रन्थों में मिलते हैं । इन तीनों का समय सातवीं सदी या उस से पहले का है।
बौद्ध दर्शन में नागार्जुन की माध्यमिक कारिका से एक पद्य लिया है (पृ. ३०३)। अश्वघोष के सौन्दरनन्द काव्य के दो प्रसिद्ध श्लोक भावसेन ने भी उद्धृत किये हैं (पृ.३०३ )। धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक के तीन पद्य विविध सन्दों में आये हैं (पृ २३१, २३३ तथा ३००)। वसुबन्धु की विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि से एक पद्य उद्धृत किया है (पृ.२९५)। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह से मीमांसकों के कुछ पद्य लिए हैं (पृ. ३८, ३९)।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होगा कि विविध दर्शनों के साहित्य का व्यापक अध्ययन भावसेन ने किया था। भावसेन के अन्य तर्कविषयक ग्रन्थों का सम्पादन होने पर उन के सन्मुख विद्यामान साहित्य का विवरण और अधिक विस्तृत तथा प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया जा सकेगा । १०. ऐतिहासिक मूल्यांकन
भावसेन ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना तेरहवी सदी के उत्तरार्ध में की है। यह समय जैन तार्किक साहित्य में विकासयुग की समाप्ति तथा संरक्षणयुग के प्रारंभ का है। हम अकलंक, विद्यानन्द अथवा प्रभाचन्द्र, देवसूरि से भावसेन की तुलना करें तो यह उचित नही होगा । अकलंकादि विद्वानों के सन्मुख दार्शनिक विचारों का सजीव विकास प्रस्तुत था – उन से प्रतिपक्षी नये सिद्धान्त तथा नये आक्षेप प्रस्तुत कर रहे ये तथा अकलंकादि आचार्यों को उन्हें नये उत्तर दे कर नई परिभाषाएं स्थिर करनी थीं । तेरहवी सदी में इस स्थिति में बहुत परिवर्तन हुआ । जैन तथा जैनेतर दोनों दर्शनों में अब नये विचारों के विकास की सम्भावना कम हुई । पुराने आचार्यों के मतों का स्पष्टीकरम, संक्षिप्त वर्णन तथा पठनपाठन यह प्रमुख उद्देश बना। ऐसे युग की प्रारम्भिक कृतियों में भावसेन के ग्रन्थों का समावेश होगा। अतः
१) प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ. ४३१.