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किसी-किसी आचार्य का यह भी मत है कि तीसरी पौरुषी में निद्रा आने पर भी उसे मुक्त करे, अर्थात् जागरणं करे। परन्तु यह अर्थ चिन्त्य है, क्योंकि सूत्रकर्ता ने तीसरी पौरुषी में और किसी भी कार्य के अनुष्ठान की सूचना नहीं दी, अतः इसमें निद्रा लेना ही सिद्ध होता है। दर्शनावरणीय कर्म का विधि - पूर्वक क्षयोपशम करना यही सैद्धान्तिक मत है । परन्तु यह सिद्धान्त सर्वोत्कृष्ट वृत्ति वालों के लिए ही प्रतिपादन किया गया है। सामान्यतया प्रथम और चतुर्थ प्रहर में जागने की आज्ञा तो सूत्रों में देखी जाती है और इस प्रकार करने से रोगादि की प्राप्ति नहीं होती ।
ठाणांगसूत्र में लिखा है ‘अइनिद्दाए' अति निद्रा से रोग उत्पन्न हो जाते हैं अतः समस्त साधु वर्ग के लिए उचित है कि वह प्रथम और चतुर्थ प्रहर में निद्रा को अवश्य त्यागे । शास्त्रकार की भी यही आज्ञा है, तथा ‘निद्रामोक्ष' शब्द का अर्थ भी यही है कि रोकी हुई निद्रा को मुक्त करना, अर्थात् शयन करना, जिससे कि निद्रा - मुक्त हो जाने पर दर्शनावरणीय कर्म क्षयोशम भाव को प्राप्त हो जाए । अब रात्रि के चार भागों के विषय में कहते हैं
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जं ने जया रत्तिं, नक्खत्तं तम्मि नहचउब्भाए । संपत्ते विरमेज्जा, सज्झाय पओसकालम्मि ॥ १९ ॥
यन्नयति यदा रात्रिं, नक्षत्रं तस्मिन्नेव नभश्चतुर्भागे । संप्राप्ते विरमेत्, स्वाध्यायात् प्रदोषकाले ॥ १९ ॥
पदार्थान्वयः - जं- जो, नक्खत्तं नक्षत्र, जया - जिस समय, रत्तिं - रात्रि को, नेइ - पूरी करता है, तम्मि - उस समय उस नक्षत्र को, नहचउब्भाए - आकाश के चतुर्थभाग को, सज्झायं - स्वाध्याय से, विरमेज्जा - निवृत्त हो जाए, पओसकालम्मि - प्रदोष काल में।
मूलार्थ - जो नक्षत्र जिस समय रात्रि की पूर्ति करता हो, वह नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थभाग में आ जाए, तब प्रदोषकाल होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाए ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में रात्रि के चार भागों की कल्पना का प्रकार बताया गया है। जैसे कि - सूर्य के अस्त हो जाने पर जिस नक्षत्र ने रात्रि को पूरा करना होता है, वह नक्षत्र उस समय उदय हो जाता है। तब आकाश में उस नक्षत्र के कालमान के अनुसार चार विभाग कर लेने चाहिएं, फिर उन्हीं विभागों के अनुसार पूर्व कथित रात्रिचर्या का अनुसरण करना चाहिए। जब वह नक्षत्र चतुर्थ भाग में आ जाए, तब स्वाध्याय को छोड़कर अन्य आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्त हो जाना चाहिए। कारण यह है कि वह काल प्रदोषकाल है, रात्रि के मुखकाल को प्रदोषकाल कहते हैं। वह प्रात: और सायंकाल की सन्धि में होता है। जिस पौरुषी में जिन क्रियाओं का विधान है और जिस भाग में नक्षत्र आए उसी के अनुसार आवश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। यदि रात्रि में उदय हुआ नक्षत्र चतुर्थभाग में आ जाए, तब स्वाध्याय को बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि इस प्रदोषकाल में प्रतिक्रमणादि अन्य आवश्यक • क्रियाओं का अनुष्ठान भी परम आवश्यक है। इसलिए आगामी गाथा में वेरत्तिय - वैरात्रिक शब्द का उल्लेख किया गया है, जिसका अर्थ है अकाल।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं