Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 21 नमुचि और बलि राज्यहीन होने पर भी जिस प्रकार शोक-मुक्त रहे, वह उनकी अध्यात्मविद्या का ही फल था / इन्द्र उनके धैर्य और अशोक-भाव को देख कर आश्चर्य-चकित रह गया। ___ महाभारत में असुरों पर वैदिक विचारों की छाप लगाई गई है फिर भी उनकी अशोक, शान्त व समभावी वृत्ति से जो आत्म-विद्या की भलक मिलती है, निश्चित रूप से उन्हें श्रमण-धर्मानुयायो सिद्ध करती है। -सांस्कृतिक विरोध ___ असुरों और वैदिक-आर्यो का विरोध केवल भौगोलिक और राजनीतिक ही नहीं, किन्तु सांस्कृतिक भी था। आर्यों ने असुरों की अहिंसा का विरोध किया तो असुरों ने आर्यों की हिंसा और यज्ञ-पद्धति का विरोध किया। भारतवर्ष में वैदिक-आर्यो का अस्तित्व सुदृढ़ होने के साथ-साथ यह विरोध की धारा प्रबल हो उठी थी। एम० विन्टरनिटज ने लिखा है-"वेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया बुद्ध से सदियों पूर्व शुरू हो चुकी थी। कम-से-कम जैनों की परम्परा में इस प्रतिक्रिया के स्पष्ट निर्देश मिलते हैं और जैन-धर्म की संस्थापना 750 ई० पू० में हो चुकी थी। इस विषय में जैनों की अन्यथा विश्वसनीय काल-बुद्धि और काल-गणना को यहाँ (और यहीं पर ?) झुठलाने की आवश्यकता नहीं। व्यूलर का तो यह विश्वास था कि वेदों ( और ब्राह्मण-धर्म ) की प्रगति तथा वेद-विरोध की प्रगति, दोनों प्रायः समानान्तर ही होती रही हैं। दुर्भाग्यवश, एक निश्चित सिद्धान्त के रूप में यह साबित करने से पूर्व ही व्यूलर की मृत्यु हो गई।"२ :- श्रमण-संस्कृति का अस्तित्व पूर्ववर्ती था इसलिए वैदिक यज्ञ-संस्था का प्रारम्भ से ही विरोध हुआ। यदि वह न होती तो उसका विरोध कैसे होता ? ___- आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार तीर्थ, पूजा, भक्ति, नदी की पवित्रता, तुलसी, अश्वत्थ आदि वृक्षों से सम्बन्धित देव और सिन्दूर आदि उपकरण-ये सब वेद-बाह्य वस्तुएँ हैं / आर्यो ने इन्हें आर्य-पूर्व जातियों से ग्रहण किया था। श्रमण-परम्परा में धर्म-संघ के लिए 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग होता था और उसके प्रवर्तक तीर्थङ्कर कहलाते थे। दीघनिकाय में पूरणकश्यप, मश्करी गोशाल, अजितकेश १-महाभारत, शान्तिपर्व, 227 / 13 / २-प्राचीन भारतीय इतिहास, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० 233 / ३-भारतवर्ष में जाति-भेद, पृ० 75-77 / ४-भगवती, 208 /