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रणसिंह का चरित्र
श्री उपदेश माला उसने उसी प्रकार 'घडइघडि'त्ति उत्तर दिया। बार-बार यही शब्द दोहराने पर राजा ने इसका कारण पूछा अर्जुन ने कहा-स्वामी! यदि मैं सत्य कहूँगा तो भी यहाँ कोई नही स्वीकारेगा। सैनिको ने कहा-स्वामी! यह कोई धूर्त है, जो प्रत्यक्ष असत्य बोल रहा है। क्रोधित होकर राजा ने उसे शूली-आरोपण की सजा दी। सैनिक अर्जुन को लेकर शूली के पास आएँ। उसी समय एक पुरुष विकराल रूप धारणकर कहने लगा-यदि इस पुरुष को सजा देंगे तो मैं सबको मार दूंगा। सैनिक उससे युद्ध करने लगे। उसने सबको भगा दिया। यह जानकर राजा उससे युद्ध करने आया। उस पुरुष ने एक कोश प्रमाण अपना शरीर बनाया। राजा ने सोचा-यह मनुष्य नही है, किंतु यक्ष, राक्षस आदि है। राजा ने अपराध की क्षमा याचना माँगी। उसने शरीर छोटा किया और प्रत्यक्ष होकर कहा-मेरा नाम दुःष्माकाल है! लोग मुझे कलि कहते है। महावीरस्वामी निर्वाण के तीन वर्ष और साढे आठ महिने के बाद, इस भरतक्षेत्र में मेरा राज्य प्रवर्त्तमान हुआ है। इस किसान ने यह अन्याय किया है कि एक शून्य खेत में दुगुणा मूल्य रखकर एक तरबुज ले लिया। तरबुज को मस्तक रूप में दिखाकर, मैंने इसे शिक्षा दी है। आज के बाद जो भी ऐसा अन्याय करेगा, मैं उसे कष्ट दूंगा। उतने में श्रेष्ठी पुत्र जीवित होकर राजा के पास आया। राजा ने अर्जुन का बहुत सन्मान किया। पश्चात् कलिपुरुष ने अपना माहात्म्य इस प्रकार कहा-राजन्! यदि मेरे राज्य में तुम न्यायधर्म का परिपालन करोगे तो मैं तुझे भी दुःखित करूँगा, ऐसा कहकर उसने राजा को छलित किया और बाद में कलि अदृश्य हो गया। सभी स्व स्थान गये। अर्जुन भी अपने घर गया।
न्यायमार्ग छोडकर राजा अन्याय आचरण में तत्पर हुआ। लोगों ने सोचा राजा को क्या हो गया? जो इस प्रकार अन्याय करता है। कोई उसे रोकने में समर्थ नहीं है उस अवसर में अपने भानजे रणसिंह को प्रतिबोधित करने के लिए जिनदास गणि ने नगर के उपवन में पदार्पण किया। मस्तक पर अंजलि जोडकर, राजा ने सपरिवार विनयपूर्वक उनको वंदनकर सामने बैठा। गुरु ने देशना प्रारंभ की-वत्स! कलि का रूप देखकर तेरा मन चलित हुआ है। किंतु इस संसार में सुख-दुःख के निमित्त पुण्य-पाप है। प्राणातिपातादि पांच आश्रव द्वारों का आचरण कर जीव नितांत पाप कर्म से लिप्त होता है। भवसमुद्र में डुबता है। हिंसादि आश्रव को छोड़े बिना धर्म कहा? कहा है
लक्ष्म्यागार्हस्थ्यमक्षणा मुखममृतरुचिः श्यामयांभोरूहाक्षी । भान्यायेन राज्यं वितरणकलया श्रीनपो विक्रमेण ॥ नीरोगत्वेन कायः कुलममलतया निर्मदत्वेन विद्या । निर्दभत्वेन मैत्री किमपि करुणया भाति धर्मोऽन्यथा न ॥
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