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श्री उपदेश माला गाथा ३१
उदायीनृप के हत्यारे का दृष्टांत नौकर ने इस अनिष्टकाम को करने का बीड़ा उठाया। वह वहाँ से पाटलिपुत्र आया,
और उसने अनेक उपाय किये, परंतु कोई भी उपाय कारगर नहीं हुआ। आखिर उस दुष्ट ने विचार किया-'विश्वास में लिये बिना उदायी राजा को मारा नहीं जा सकता।' इसीलिए उसने धर्मगुरु के पास जाकर उनके सामने वैराग्य प्राप्त हो जाने की मीठी-मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें करके उनसे मुनि-दीक्षा धारण कर ली। उन आचार्य (गुरु) को उदायी राजा बहुत मानता था। उनके पास वह मुनि वेशधारी नौकर अध्ययन करने लगा, वह साधुओं का अत्यन्त विनय व सेवा-शुश्रूषा करने लगा। अतः आचार्य आदि के मन को अपने विनय गुण से वशीभूत कर लिया।
उदायी राजा अष्टमी और चतुर्दशी के दिन, एक अहोरात्र भर का पौषध करता था। आचार्य उस दिन उसे धर्म-उपदेश देने के लिए रात को अत्यन्त निकटवर्ती उसकी पौषधशाला में जाते थे। एक दिन अष्टमी के दिन गुरु जाने के लिए तैयार हुए, तब उस नव-दीक्षित साधु ने कहा- "स्वामी! आपकी आज्ञा हो तो मैं भी साथ चलूं।" गुरु ने उसके हृदय के भावों को जानकर उसे साथ नहीं लिया। वह हर बार गुरु के साथ जाने को इस तरह कहता, परन्तु उसे गुरु साथ नहीं ले जाते थे। इस तरह बारह वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार चतुर्दशी के दिन गुरु महाराज उदायी की पौषधशाला में जा रहे थे, उस समय उस कपटी साधु ने कहा-'गुरुदेव आपकी आज्ञा हो तो मैं भी साथ चलूं?' भवितव्यता के कारण गुरु महाराज ने कहा-"अच्छा, चलो।" बस, फिर क्या था? वह गुरुदेव के साथ पौषधशाला में आया और दंभ से संथारे (आसन) पर बैठा। उदायी राजा ने गुरु
को वंदन किया, प्रतिक्रमण किया और बाद में संथारा पौरसी पढ़कर शयन किया। . जब राजा और आचार्य दोनों निद्राधीन हो गये, तब उस दुष्ट कुशिष्य ने उठकर
पास में गुप्त रूप से रखी हुई कंकजातीय लोहे की छुरी निकाली और राजा के गले पर फेर दी। राजा तत्काल मर गया। वह कुशिष्य छुरी वहीं रखकर भाग गया। बाहर खड़े हुए राजसेवकों (सिपाहियों) ने साधु जानकर उसे नहीं रोका। इधर राजा के शरीर से इतना खून निकला कि वह गुरु के संथारे तक आ गया। उसके स्पर्श से गुरुमहाराज जागे और विचार करने लगे, कि 'यह क्या हुआ? मेरे पास जो शिष्य था वह नहीं दीखता? हो न हो, वही कुशिष्य राजा को मारकर भाग गया है।" यों विचारकर उन्होंने चिन्तन किया- 'यह तो महान अनर्थ हो गया। प्रातःकाल राजा को मृत देखकर लोग कहेंगे-"जैन मुनि इस प्रकार का कुकर्म करते हैं।' इस तरह जैनधर्म की महानिंदा होगी। अतः इस निंदा के निवारण का सच्चा उपाय यही है कि मैं भी अपनी इस महान् भूल (एक अयोग्य को दीक्षा
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