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अविनीत और अभिमानी का तप-संयमादि निष्फल है श्री उपदेश माला गाथा १३५-१३६ करने से एक महीने के तप का क्षय कर देता है, किसी को शाप देने या किसी को विनाशकारी शब्द कहने से एक वर्ष का तप नष्टकर देता है और किसी को डंडा. तलवार, लट्ठी या किसी भी शस्त्र से मारने-पीटने या वध कर देने से जीवनपर्यंत के आचरित श्रमणत्व का ही खात्मा कर देता है। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से किया गया है ।।१३४।।।
अब प्रमाद का फल बताते हैं- ..
अह जीवियं निकिंतइ, तूण य संजमं मलं चिणइ । . __ जीयो पमायबहुलो, परिभमइ जेण संसारे ॥१३५॥ .
शब्दार्थ - संसार की मोहमाया में फंसा हुआ साधक अत्यंत प्रमादवश अपने संयमी जीवन को अपने ही हाथों नष्ट कर डालता है। और संयम का नाश करके फिर पापरूपी मल की वृद्धि करता रहता है। ऐसा प्रमाद बहुल जीव फिर संसार में जन्म मरण के चक्कर काटता रहता है ।।१३५।।
. भावार्थ - इसीलिए प्रमाद को छोड़कर साधक को सावधानी पूर्वक संयम की आराधना करनी चाहिए। संयम के १७ भेद इस प्रकार है-पांच आश्रवों का त्याग, पांच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय और मनवचन काया रूप तीन दण्डों से विरति। अप्रमादी रहने पर ही संयम की आराधना और रक्षा भलीभांति हो सकती है ॥१३५॥
अक्कोसण-तज्जण-ताडणाओ, अवमाण-हीलणाओ अ । मुणिणो मुणियपरभवा, दडप्पहारि व्य विसहति ॥१३६॥
शब्दार्थ - जिन मनुष्यों ने परभवों (अन्य जन्मों) का स्वरूप भलीभांति जान लिया है वे दृढ़प्रहारी मुनि की तरह अज्ञजनों द्वारा दिये गये शाप, दुर्वचन या किये गये डांट-फटकार, मारपीट, अपमान, अवहेलना, निन्दा आदि प्रहारों को समभाव से सह लेते हैं ।।१३६।।
भावार्थ - आक्रोश का अर्थ है-शाप देना, कोसना या अपशब्द कहना। तर्जना का अर्थ है-आंखें लाल करना, भौहें टेढ़ी करके जोर-जोर से डांटना, फटकारना या भर्त्सना करना। ताड़ना है-लाठी आदि शस्त्रों से प्रहार करना। इसी प्रकार निरादर करना, नीच कुल, जाति प्रकट करके लोगों की दृष्टि में उसे नीचा दिखाना, बदनाम करना या उसकी निन्दा करना, ये सर्व प्रहार के प्रकार है। परभवों के स्वरूप के ज्ञाता-द्रष्टा मुनि इनके बदले रोषपूर्वक प्रत्याक्रमण करके नये कर्म नहीं बांधता; बल्कि मुनि दृढ़प्रहारी की तरह समभाव पूर्वक इन्हें सहनकर पुराने कर्मों का क्षय करता है। 232