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श्री उपदेश माला गाथा ४२१-४२५ विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ शास्त्रज्ञान ही फलीभूत
सिप्पाणि य सत्थाणि य, जाणतो यि न य जुंजई जो उ ।
तेसिं फलं न भुंजड़, इअ अजयंतो जई नाणी ॥४२१॥
शब्दार्थ - शिल्प, कला और व्याकरण आदि शास्त्रों को जानता हुआ भी जो व्यक्ति जब तक उसका सदुपयोग (प्रयोग) नहीं करता तब तक वह इन शिल्पादि से होने वाला धनलाभादि फल प्राप्त नहीं कर सकता। उसी तरह ज्ञानवान साधु प्रमादवश होकर शास्त्र विहित संयम-क्रिया में उद्यम नहीं करता तो उसका ज्ञान निष्फल है, वह मोक्षफल कैसे प्राप्त कर सकता है? ।।४२१।।
गारवतियपडिबद्धा, संजमकरणुज्जमंमि सीयंता ।
निग्गंतूण गणाओ, हिंडंति पमायरन्नंमि ॥४२२॥
शब्दार्थ - रसगौरव, ऋद्धिगौरव और सातागौरव में आसक्त रहने वाला और ६-जीवनिकाय के रक्षण रूप संयम-अनुष्ठान के उद्यम से या पुरुषार्थ करने से जो कतराता है, या सुस्त है वह साधु गच्छ से निकलकर विषय-कषाय-विकथादि दोष रूपी विघ्नों से परिपूर्ण प्रमाद रूपी अरण्य में स्वेच्छा से परिभ्रमण करता है ।।४२२।।
नाणाहिओ वरतरं, हीणो वि हु पययणं पभावितो । न य दुक्करं करितो, सुट्ठ वि अप्पागमो पुरिसो ॥४२३॥
शब्दार्थ- कोई साधक चारित्र (क्रिया) पालन में हीन होने पर भी निश्चयनयः की दृष्टि से शुद्ध प्ररूपणा से जिनशासन की प्रभावना करता है, तो वह बहुश्रुत पुरुष श्रेष्ठ है; परंतु भलीभांति मासक्षपणादि दुष्कर तपस्या करने वाला अल्पश्रुत पुरुष श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात् क्रियावान होने पर भी ज्ञानहीन पुरुष अच्छा नहीं है ।।४२३।। . नाणाहियस्स नाणं, पुज्जई नाणापयत्तए चरणं ।
जस्स पुण दुण्ह इक्वं पि, नत्थि तस्स पुज्जए काई? ॥४२४॥
शब्दार्थ - ज्ञान से पूर्ण पुरुष का ज्ञान पूजा जाता है; क्योंकि ज्ञानयोग से चारित्र की प्राप्ति होती है, परंतु जिस पुरुष के जीवन में ज्ञान या चारित्र में से एक भी गुण न हो, उस पुरुष की क्या पूजा हो सकती है? कुछ भी नहीं होती ।।४२४।।
नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स ॥४२५॥
शब्दार्थ - चारित्र (क्रिया) से रहित ज्ञान निरर्थक है; सम्यग्दर्शन रहित साधुवेष निष्फल है और जीवनिकाय की रक्षा रूप चारित्र से रहित तपश्चरण निष्फल है। उपर्युक्त तीनों से रहित व्यक्ति का मोक्षसाधन निरर्थक है ।।४२५।।
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