________________
अंगसंगोपनकर्ता कछुए का दृष्टांत
श्री उपदेश माला गाथा ४८५-४८७ नोचकर खा गये।
अपने साथी कछुए को मरा देखकर दूसरे कछुए ने अपने अंग और अधिक सिकोड़ लिये। उन दुष्ट गीदड़ों ने उसे भी मारने के लिए बहुतेरे प्रयत्न किये; मगर वे उसका बाल भी बांका न कर सके। आखिर हार थककर वे दोनों गीदड़ वहाँ से बहुत दूर चले गये। उस कछुए ने उनको बहुत दूर चले गये जानकर पहले अपनी गर्दन जरा-सी बाहर निकालकर चारों ओर देखा। जब देखा कि गीदड़ बहुत दूर हैं, तब उसने झटपट अपने चारों पैर बाहर निकाले और जल्दी से भागकर मृद्गंग सरोवर में घुस गया और वहाँ अपने परिवार से मिलकर बड़ा प्रसन्न हुआ।
इस दृष्टांत से प्रेरणा लेकर जो साधु अपने अंगोपांगों को सिकोड़कर सुरक्षित रखते हैं, उनका व्यर्थ उपयोग नहीं करते और न उन्हें उन्मार्ग में जाने देते हैं, वे मोक्षसुख पाते हैं। परंतु जो सियारों द्वारा मारे गये कछुए के समान अपने अंगोपांगों को सिकोड़कर सुरक्षित नहीं रखते, वे उस कछुए के समान दुःख पाते हैं ॥४८४॥
विकहं विणोयभासं, अंतरभासं अवक्कभासं च । जं जस्स अणिट्ठमपुच्छिओ, य भासं न भासिज्जा ॥४८५॥
शब्दार्थ - स्त्री, भोजन, शासक और देशसंबंधी विकथाओं से युक्त भाषा, कुतूहल, कामोत्तेजना या हंसी पैदा करने वाली वाणी, गुरु या बड़े साधु किसी से बात कर रहे हों, उस समय बीच में ही बोल पड़ना, मकार-चकार आदि अवाच्य अश्लील शब्द या अपशब्द बोलना या किसी का अनिष्ट (बुरा) करने वाली या अप्रीति पैदा करने वाली बात कहना, किसी के बिना पूछे ही निरर्थक बोलते रहना; इन और ऐसी भाषाओं का प्रयोग साधु न करे ।।४८५।।
अणवट्ठियं मणो जस्स, झायड़ बहुयाइं अट्टमट्टाई । तं चिंतिअं च न लहइ, संचिणइ य पावकम्माई ॥४८६॥
शब्दार्थ - जिसका मन हर समय अत्यंत चंचल रहता है, जो अंटसंट इधरउधर के अनाप-सनाप बुरे विचार करता रहता है; वह अपना मनोवांछित फल प्रास नहीं कर सकता; उलटे वह पापकर्मों का संचय करता रहता है। इसीलिए मन को स्थिर करके ही सर्वार्थ साधक संयम में पुरुषार्थ करना चाहिए ।।४८६।।
जह-जह सव्युवलद्धं, जह-जह सुचिरं तयोधणे(वणे) योत्थं ।
तह-तह कम्मभरगुरू, संजमनिब्बाहिरो जाओ ॥४८७॥
402