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संविग्नपक्ष
श्री उपदेश माला गाथा ५२४-५२७
अपनी पूरी ताकत लगाकर सावधान होकर यतना पूर्वक साधु के योग्य क्रिया (करणी) करता है। मतलब यह है कि ऐसे प्रबल कारण उपस्थित होने पर साधु अपनी शक्ति-अनुसार जो कर्तव्य है, उसे यतनापूर्वक अवश्य करता है ।। ५२३।।
आयरतरसंमाणं सुदुक्करं, माणसंकडे लोए ।
संविग्गपक्खियत्तं, ओसन्नेणं फुडं काउं ॥ ५२४॥
शब्दार्थ - माण संकडे= गर्व से तुच्छ मनवाले स्वाभिमान ग्रस्त लोक के बीच शिथिलाचारी को अतिशय प्रयत्न से छोटे भी सुसाधुओं को वंदनादि सन्मान करने रूप संविग्न पाक्षिकपना प्रकट रूपमें आचरण में लेना या स्पष्ट निष्कपटभाव से बहानें बनाये बिना वैसा आचरण करना अत्यंत दुष्कर है ।।५२४।।
सारणचइआ जे गच्छनिग्गया, पविहरंति पासत्था
जिणवयणबाहिरा वि य, ते उ पमाणं न कायव्या ॥५२५ ॥ शब्दार्थ - किसी साधक को आचार्यादि द्वारा विस्मृत कर्तव्य को बारबार याद दिलाने पर या 'इस कार्य को इस प्रकार करो, ऐसे नहीं, इस प्रकार बारबार टोकने पर - यानी हितशिक्षा देने पर वह क्षुब्ध और उद्विग्न होकर, आवेश में आकर उस गच्छ का परित्याग करके साध्वाचार-विचार छोड़कर स्वच्छंद - विहार करता है, तो वह पासत्था है और जिनाज्ञा-बाह्य है; अर्थात् जो पहले चारित्र का दोष-रहित पालन करता है, लेकिन बाद में उसमें प्रमादी हो गया है; तो उसके साधुत्व को प्रमाण रूप नहीं मानना चाहिए ।।५२५ ।।
हीणस्स वि सुद्धपरूवंगस्स, संविग्गपक्खवाइस्स । जा - जा हवेज्ज जयणा, सा-सा निज्जरा होड़ ॥५२६ ॥
शब्दार्थ – कोई साधक उत्तरगुणों में कुछ कमजोर (शिथिल) होने पर भी
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प्ररूपणा विशुद्धमार्ग की करता है, संविग्नसाधुओं का पक्षपाती है, वह ऐसे प्रबल कारणों के उपस्थित होने पर बहुत दोष वाली वस्तुओं के त्याग तथा अल्पदोष वाली वस्तुओं के ग्रहण रूप यतना जितनी - जितनी यथाशक्ति, यथामति करता है उतनीउतनी उसके कर्मों की निर्जरा (एक अंश से कर्मक्षय) होता जाता है ।। ५२६ ।।
सुंकाई परिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चेट्टं । एमेव य गीयत्थो, आयं दट्ठू समायरड़ ॥५२७॥
शब्दार्थ - जैसे कोई वणिक् (व्यापारी) तभी व्यापार करता है, जब राज्य का कर, दूकान, नौकर आदि का खर्च निकालकर उसे लाभ होता हो; वैसे ही गीतार्थ
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