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श्री उपदेश माला गाथा ५१६-५२३
तीन मोक्ष-मार्ग तीन संसार मार्ग सावज्जजोगपरिवज्जणाए, सव्युत्तमो जड़धम्मो । बीओ सायगधम्मो, तइओ संविग्गपखपहो ॥५१९॥
शब्दार्थ - प्रथम और सर्वोत्तम मार्ग है-सावद्य (पापमय) व्यापार (प्रवृत्ति) का सर्वथा-त्याग रूप साधुधर्म, उसके बाद दूसरा है-सम्यक्त्वमूलक देशविरतिरूप श्रावकधर्म और तीसरा मार्ग संविग्नपक्ष का है ।।५१९।।
सेसा मिच्छदिट्ठी, गिहिलिंग-कुलिंग-दव्यलिंगेहिं । जह तिन्नि य मोक्खपहा, संसारपहा तहा तिण्णि ॥५२०॥
शब्दार्थ - ऊपर बताये हुए तीन मार्गों के अलावा बाकी मार्ग मिथ्यादृष्टियों के हैं। वे भी तीन हैं-गृहस्थवेषधारी, तापस, जोगी, संन्यासी आदि कुलिंगधारी और द्रव्य से साधु का वेष धारण करने वाला द्रव्यलिंगी साधक। जैसे ऊपर वाली गाथा में तीन मोक्ष के मार्ग बताये हैं, वैसे ये तीनों संसार (परिभ्रमण) के मार्ग है ।।५२०।।
संसारसागरमिणं, परिभमंतेहिं सव्वजीवेहिं । गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दव्वलिंगाई ॥५२१॥
शब्दार्थ - इस अनादि-अनंत संसार में परिभ्रमण करते हुए समस्त जीवों ने अनंत बार द्रव्यलिंगों (रजोहरण वेषों) को धारण किया है, और छोड़ा है। परंतु कोरे वेष धारण से कोई आत्महित नहीं हुआ ।।५२१।।
अच्वणुरत्तो जो पुण, न मुयइ बहुसो वि पन्नविज्जतो । संविग्गपक्खियत्तं, करेज्ज लब्भिहिसि तेण पहं ॥५२२॥
शब्दार्थ - शिथिलता आदि के कारण कोई प्रमादी साधु साधु वेष रखने में अत्यंत अनुरागी है; बहुत बार आचार्य-गीतार्थसाधु आदि द्वारा उसे हितबुद्धि से समझाने पर भी साधुवेष नहीं छोड़ता है तो उसे चाहिए कि वह पूर्वोक्तलक्षणों वाला संविग्नपक्ष वाला मार्ग स्वीकार कर ले। ऐसा करने पर वह एक जन्म बिताकर आगामी जन्म में ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।।५२२।।
__ कंताररोहमद्धाण-ओमगेलन्नमाइज्जेसु । सव्वायरेण जयणाइ, कुणइ जं साहुकरणिज्जं ॥५२३॥
शब्दार्थ - बड़ी भारी अटवी में, किसी शत्रु राजा द्वारा नगर पर चढ़ाई के कारण नगर-के द्वार बंध हो जाने से, उजड़ या उबड़-खाबड़ रास्ते पड़ जाने के कारण, दुष्काल, भूखमरी आदि प्रसंगों में, या बीमारी के अवसर पर भी सुसाधु
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