Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ निश्चय-व्यवहार से साधु संविग्न पाक्षिक कौन? श्री उपदेश माला गाथा ५१५-५१८ सुद्धं सुसाहुधम्म कहेड़, निंदइ य निययमायारं । सुतवस्सियाणं पुरओ, होइ य सव्योमरायणीओ ॥५१५॥ वंदइ न य वंदावेड़, किड़कम्म कुणइ, कारवड़ नेय । अत्तट्ठा न वि दिक्खे, देइ सुसाहूण बोहेउं ॥५१६॥ युग्मम् शब्दार्थ - जो साधक शुद्ध सुसाधुधर्म (क्षमा आदि १० प्रकार के श्रमणधर्म) की सुसाधु के समान प्ररूपणा करता है, अपने शिथिलाचार की निन्दा करता है और अच्छे तपस्वियों, बड़े साधुओं या नवदीक्षित साधुओं आदि सबसे अपने आपको छोटा (सबसे न्यूनरात्निक) मानता है। संविग्न लघुसाधुओं को भी स्वयं वंदन करता है, परंतु उनसे वंदन नहीं करवाता; उनकी सेवा आदि करता है, मगर उनसे सेवादि नहीं कराता; अपने पास दीक्षा लेने के लिए आये हुए वैराग्यसंपन्न को या अपने पास दीक्षा लेने वाले को स्वयं दीक्षा नहीं देता, परंतु दीक्षा के उम्मीदवार को प्रतिबोध देकर सुसाधुओं के पास भेजकर उनसे दीक्षा दिलाता है। अर्थात् उन्हें शिष्य रूप में उसे समर्पित करता है, किन्तु स्वयं का शिष्य नहीं बनाता। इन लक्षणों से युक्त साधु को संविग्न पाक्षिक (मोक्षाभिलाषी सुसाधुओं के हिमायती) समझना चाहिए ।।५१५-५१६ ।। ओसन्नो अत्तट्ठा, पमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो । तं छुहइ दुग्गईए, अहिययरं बुड्डइ सयं च ॥५१७॥ शब्दार्थ - उपर्युक्त संविग्नपाक्षिक साधु के अतिरिक्त जो सिर्फ शिथिलाचार परायण साधक होता है, वह ऊपर की गाथाओं में बताये अनुसार नहीं चलता। वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को दीक्षा देकर अपनी और दूसरे की आत्मा का हनन करता है। क्योंकि ऐसा साधक अपने शिष्य को भी शिथिलाचार पथ पर चलाकर उसे भी दुर्गति में डालता है और अपने आपको भी पहले से भी अधिकतर रूप में संसारसमुद्र में डूबाता है ।।५१७।। जह सरणमुवगयाणं, जीवाण निकिंतए सिरे जो उ । एवं आयरिओ वि हु, उस्सत्तं पन्नयंतो य ॥५१८॥ शब्दार्थ - जैसे कोई व्यक्ति अपनी शरण में आये हुए लोगों का सिर काटकर उनके साथ विश्वासघात करता है, वैसे ही अपने पास विश्वास से आये हुए भव्यजीवों के सामने जो सूत्र (सिद्धांत) विरुद्ध प्ररूपणा करता है, उन्हें उन्मार्ग में प्रवृत्त करता है, वह आचार्य भी उनके साथ विश्वासघात-रूप मस्तक छेदन करता है ।।५१८।। 410

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444