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गुणों के बिना साधुवेश का आडंबर व्यर्थ है
श्री उपदेश माला गाथा ४३४-४३७ शब्दार्थ - सम्यक्त्व - रत्न का नाश करने के बाद वह मुनि जिनाज्ञा भंग रूप अपराध से इस जन्म में तो सम्मान हीन जीवन व्यतीत करने के रूप में प्रत्यक्ष फल प्राप्त करता ही है, बुढ़ापे और मृत्यु का दुःख भी पाता है, मृत्यु के बाद भी अनंतकाल तक संसार समुद्र में परिभ्रमण रूप फल (दुःख) प्राप्त करता है ।।४३३ ।।
जइयाऽणेणं चत्तं, अप्पाणयं नाणदंसणचरितं ।
तड़या तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु ॥४३४॥ शब्दार्थ - जिस अभागे जीव ने अपने आत्महित कारक ज्ञान दर्शन- चारित्र
का त्याग कर दिया, समझ लो, उस जीव को दूसरे जीवों पर अनुकंपा नहीं है। जो अपनी आत्मा का हितकर्ता नहीं बनता, वह दूसरों का हितकर्ता कैसे हो सकता है? अपनी आत्मा पर जिसकी दया हो उसीकी दूसरे जीवों पर दया हो सकती है। अतः आत्मदया ही परदया है ।। ४३४ ।।
छक्कायरिऊण अस्संजयाण, लिंगायसेसमित्ताणं । बहुअस्संजमपयहो, खारो मयलेइ सुट्ठयरं ॥४३५॥
शब्दार्थ - षड्जीवनिकाय की विराधना (हिंसा) करने वाले षट्काय के शत्रु हैं, वे मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों को निरंकुश छोड़ने वाले सिर्फ वेश धारण किये फिरने वाले साधु हैं। ऐसे असंयमी साधक अत्यंत असंयम (अनाचीर्ण) - रूप पाप के प्रवाह में क्षार (जले हुए तिल) के समान अपनी और दूसरे की आत्मा को पूरी तरह से मलिन बना देते हैं । । ४३५ ।।
किं लिंगविड्डरीधारणेण ? कज्जम्मि अट्ठिए ठाणे राया न होइ सयमेव धारयं चामराडोये ॥४३६ ॥
शब्दार्थ - जैसे श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठने से या हाथी-घोड़े आदि पर बैठने से, छत्र - चामर के आडंबर धारण करने से ही कोई राजा नहीं कहलाता; उसी तरह संयम रहित पुरुष केवल साधुवेष धारण करने से ही साधु नहीं कहलाता। इसीलिए गुण के बिना साधुवेश का आडंबर व्यर्थ है और वह केवल उपहास का पात्र बनता है ।। ४३६ ।।
जो सुत्तत्थविणिच्छियकयागमो मूलउत्तरगुणोहं । उच्चहड़-सयाऽखलिओ, सो लिक्खड़ साहूलिक्खमि ॥४३७॥
शब्दार्थ – जिसने सूत्र और कार्य का असंदिग्ध ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जिसने आगमों के रहस्य को जान लिया है और जो निरंतर अतिचार रहित मूल- गुणों और उत्तर- गुणों के परिवार को सावधानी से धारण किये हुए है; वही साधु साधुओं
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