Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ साध्वाचार एवं जिनोपदेश ___ श्री उपदेश माला गाथा ४४६-४४८ अभयकुमार ने जब सुलस के बुद्धिकौशल से परिवार को बदलने की बातें सुनी तो वह हर्षित होकर सुलस के यहाँ आया। उसे कुशलमंगल पूछने के बाद उसने सुलस ने कहा- "भाई सुलस! तुमने नीच और हिंसाकर्म करने वाले कुल में जन्म लेकर भी अपने अहिंसा धर्म पर अड़ग रहे, हिंसा को जरा भी प्रश्रय नहीं दिया; धन्य है तुम्हें! तुम-सा मित्र पाकर मैं अत्यंत प्रसन्न और भाग्यशाली हूँ।" इस प्रकार अभयकुमार सुलस व उसके परिवार वालों से मिलकर उन्हें धन्यवाद देकर अपने घर लौटा। सुलस ने चिरकाल तक श्रावकधर्म का पालन किया और आयुष्य पूर्ण करके स्वर्ग में पहुँचा। इसी तरह जो जीव दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचाते, वे स्वर्गसुख प्राप्त करते हैं ॥४४५।। मोलगकुदंडगादामगणिओ-चूलघंटिआओ य । पिंडेइ अपरितंतो, चउप्पया नत्थि य पसू वि ॥४४६॥ शब्दार्थ - जो व्यक्ति पशुओं को बांधने के लिए खूटा, छोटे-छोटे बछड़ों के बांधने के लिए खीला, पशुओं को बांधने लिए रस्सी, गले में बांधने लायक घंटी आदि पशुओं की सारी शृंगारसामग्री तो इकट्ठी कर लेता है, परंतु अपने घर में एक भी गाय, भैंस आदि चौपाया जानवर नहीं रखता तो उसका इस प्रकार की सामग्री इकट्ठी करना व्यर्थ होता है ।।४४६।। तह वत्थपायदंडग-उवगरणे, जयणकज्जमुज्जुत्तो । जस्सट्ठाए किलिस्सइ, तं चिय मूढो न वि करेइ ॥४४७॥ शब्दार्थ - जैसे पशुओं के रखे बिना ही पशुओं के बांधने आदि का सामान इकट्ठा करने वाला हंसी का पात्र और बेवकूफ समझा जाता है; वैसे ही जो अविवेकी साधक वस्त्र, पात्र, दंड, रजोहरण आदि संयम की सकल सामग्री (धर्मोपकरण) अत्यंत ममतापूर्वक बेमर्याद इकट्ठी कर लेता है, लेकिन जिस उद्देश्य के लिए वह संयम की साधन सामग्री रखी है, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन उपकरणों की जयणा जरा भी नहीं करता। उन्हें सहेज-सहेज कर रखता जरूर है, मगर उनका प्रतिलेखन-प्रमार्जन आदि नहीं करता, न दूसरे साधुओं को देता है। वह वास्तव में विचारमूढ़ है; क्योंकि संयम के लिए वह उपकरण जुटाने का सिर्फ कष्ट उठाता है, मगर उस संयम की कारणभूत यतना को नहीं अपनाता। इसीलिए उसका उपकरण इकट्ठे करना व्यर्थ है ।।४४७।। अरिहंत भगवंतो, अहियं व हियं व न वि इहं किंचि । वारंति कारविंति य, चित्तूण जणं बला हत्थे ॥४४८॥ 388

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444