Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 416
________________ श्री उपदेश माला गाथा ४४६-४५३ जिनाज्ञा आराधक का सुफल विराधक जमाली शब्दार्थ-भावार्थ - राग-द्वेष रहित श्री अरिहंत भगवान् इस संसार में किसी का हाथ पकड़कर न तो जबरन जरा भी हित कराते हैं न किसी को अहित से रोकते हैं। मतलब यह है कि जैसे राजा मनुष्यों से जबर्दस्ती अपनी हितकारी आज्ञा पलवाता है व अहितकारी मार्ग से रोकता है, वैसे अरिहंत भगवान् नहीं करते ॥४४८।। फिर भगवान् क्या करते हैं? इस विषय में ग्रंथकार स्वयं कहते हैं उवएस पुण तं दिति, जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं । देवाण वि हुंति पहू, किमंग पुण मणुयमित्ताणं ॥४४९॥ शब्दार्थ - जिनेश्वर भगवान् भव्यजीवों को धर्मोपदेश देते हैं, जिसका आचरण करके वे कीर्ति के स्थान रूप देवों के भी स्वामी (इन्द्र) बनते हैं, फिर मनुष्य मात्र के स्वामी होने में तो आश्चर्य ही क्या? ।।४४९।। वरमउडकिरीडधरो, चिचड़ओ चवलकुंडलाहरणो । सक्को हिओवएसा, एरावणवाहणो, जाओ ॥४५०॥ शब्दार्थ-भावार्थ - श्रेष्ठ मुकुटधारी, बाजूबंद आदि आभूषणों से सुशोभित, कानों में दिव्य चमकते हुए चपल कुंडल से विभूषित शक्रेन्द्र श्रीजिनेश्वर भगवान् के हितकर उपदेश के अनुसार आचरण करने से ऐरावत नामक हाथी की सवारी वाला बना। मतलब यह है कि कार्तिक सेठ के भव में इन्द्र ने श्री मुनिसुव्रत स्वामी का उपदेश सुनकर उनके पास दीक्षा ग्रहण की थी; और १२ वर्ष तक संयम की आराधना की। जिसके फल स्वरूप वे सौधर्मेन्द्र बनं ।।४५०।। रयणुज्जलाई जाई, बत्तीसविमाणसयसहस्साई। यज्जहरेण वराई, हिओवएसेण लद्धाइं ॥४५१॥ शब्दार्थ - सौधर्मेन्द्र को दिव्यरत्नादि से विभूषित देदीप्यमान और श्रेष्ठ ३२ लाख विमानों का स्वामित्व श्री वीतरागप्रभु के हितोपदेश के अनुसार आराधना करने से प्राप्त हुआ ।।४५१।। . सुरवइसमं विभूइं, जं पत्तो भरहचक्कवट्टी वि । माणुसलोगस्स पहू, तं जाण हिओवएसेण ॥४५२॥ शब्दार्थ - इस मनुष्य लोक में भी भरतचक्रवर्ती ने भी इन्द्र के समान ऐश्वर्य और भरतक्षेत्र के षट्खण्ड के अधिपति के रूप में जो प्रभुत्व पाया, उसे भी जिनेश्वर भगवान् के हितकर-उपदेशानुसार आचरण का फल समझो ।।४५२।। लद्धूण तं सुइसुहं, जिणवयणुवएस-मयबिंदुसमं । अप्पहियं कायव्यं, अहिएसु मणं न दायव्यं ॥४५३॥ : 389

Loading...

Page Navigation
1 ... 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444