Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 419
________________ जिनाज्ञा आराधक जमाली की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४५६ के बाहर कोष्ठकवन में निवास किया। वहाँ जमाली के शरीर में महाज्वर उत्पन्न हुआ। ज्वर की महावेदना सहन न होने से उसने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा-"मेरे लिये संथारा बिछा दो। शिष्य संथारा बिछाने लगा। असह्य वेदना सहन न होने से अधीरता पूर्वक जमाली ने फिर शिष्य से पूछा- "क्या संथारा हो गया?" "हो ही गया समझिए।" शिष्य ने उत्तर दिया। सुनते ही जमाली तुरंत जहाँ शय्यासन बिछाया जा रहा था, वहाँ आया और देखकर बोला-"वत्स! तूं तो अभी तक संथारा बिछा रहा है, फिर असत्य क्यों बोला कि संथारा हो गया।'' शिष्य ने कहा- "भगवन् महावीर के 'कडेमाणे कडे' (अर्थात् किसी कार्य को प्रारंभ कर देने पर वह कार्य संपन्न हो गया) सिद्धांतवचन है। इसके अनुसार मैंने सत्य ही कहा है।" यह सुनते ही जमाली के दिमाग में सहसा एक विचार सूझा और उसने फौरन अपने शिष्य से कहा-"वत्स! भगवान् का यह वचन असत्य है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप से विरुद्ध दिखता है। इससे भूत और भविष्यकाल में पूर्वापर विरोध आता है। इसीलिए कार्य करने के बाद ही कार्य किया, ऐसा कहना उचित है। वह कार्य किया जा रहा हो तो 'उस कार्य को किया;' ऐसा नहीं कहना चाहिए।" यह सुनकर जमाली के सभी शिष्यों ने तर्क प्रस्तुत किया-"गुरुदेव! यह बात अभी हमारे गले नहीं उतरी। क्योंकि लोक-व्यवहार में कोई आदमी किसी गाँव को जाने के लिए चल पड़ा; लेकिन अभी तक उस गाँव में पहुँचा नहीं है, बल्कि उस गाँव के बाहर ही खड़ा है; तो भी उसके घरवालों से पूछने पर उत्तर मिलता है-"वह फलां गाँव गया है। कोई बर्तन थोड़ा-सा फूट गया हो तो भी वह फूटा हुआ कहलाता है। किसी कपड़े का थोड़ा-सा हिस्सा फट जाने पर भी वह कपड़ा फट गया कहलाता है। इसी तरह करते हुए कार्य को भी किया कहना लोकव्यवहार से और 'कडेमाणे कडे' के निश्चित सिद्धांत से संगत वचन है। यदि प्रथम समय में कार्य की उत्पत्ति नहीं मानी जायगी, तो दूसरे, तीसरे और चौथे समय में भी कार्य संपन्न हुआ नहीं माना जायेगा। फिर तो पूर्ण होने के अंतिम क्षण में ही कार्यसिद्धि कार्यसंपन्नता-कही जायगी। और ऐसा मानने पर प्रथम आदि समय में जो कार्य हुआ, वह समय व्यर्थ कहलायेगा। और सारा कार्य पूर्ण होने के अंतिम क्षण में ही संपन्न नहीं होता प्रतीत होता है; पहले के समयों ने ही उस कार्य को अंतिम सिरे (पूर्णता) तक पहुँचाया है। अतः 'कार्य की समाप्ति होने पर ही कार्य हुआ;' यह आपका कथन लोकव्यवहारविरुद्ध और सिद्धांत से असंगत मालूम होता है। भगवान् महावीर का कथन ही हमें तो युक्तियुक्त और सत्य लगता है।" शिष्यों की इन अकाट्ययुक्तियों के सामने जमाली हतप्रभ और निरुत्तर तो हो गया; फिर भी 392

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