Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 410
________________ श्री उपदेश माला गाथा ४३६ दर्दुरांक देव की कथा जा रहे हो? जाल में बहुत-सी मछलियाँ पकड़ी हुई हैं, इसीलिए मालूम होता है तुम मछलियाँ खाते भी हो?" राजा श्रेणिक के प्रश्न और देव द्वारा दिये गये उत्तर निम्नलिखित श्लोक के रूप में ग्रथित है कन्थाचार्य! श्लथा किं ननु? शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यान्? तान् वै मद्योपदंशात्, पिबसि मधु? समं वेश्यया यासि वेश्याम्? दत्त्वारीणाँ गलेऽङ्घीं, ननु तव रिपवो? येन सायं छिनगि । चोरस्त्वं? द्यूतहेतोः किं तव इतिकथं? येन दासीसुतोऽस्मि ॥ अर्थात् - "अरे कन्थाचार्य! तेरी यह गुदड़ी क्यों चिथड़े-चिथड़े हो रही है?" वह बोला-"यह गुदड़ी नहीं, मछलियाँ पकड़ने का जाल है।" तो फिर मछलियाँ भी खाता है तूं? "हाँ, जब शराब पीता हूँ, तब बीच-बीच में खा लेता हूँ।" "तो क्या शराब भी पीता है?" "हाँ, वेश्या के साथ प्रीति होने से उसके साथ शराब भी पीनी पड़ती है?" "अरे! क्या तूं वेश्यागमन भी करता है?" हाँ, शत्रुओं को चकमा देने के लिए वेश्या के पास जाया करता हूँ।" "क्या तेरे शत्रु भी हैं?" "क्योंकि मैं रात को चोरी जो करता हूँ" "अरे! तूं चोर भी है?" "हाँ, जुआ खेलने के लिए धन चाहिए, उसके लिये चोरी करता हूँ।" "तब तूं जुआरी भी है?" तेरे जुआरी होने का कारण क्या है? 'राजन्! मैं दासीपुत्र हूँ। इसीलिए जुआरी बना हूँ।" इन उत्तरों के सुनने पर भी राजा अपने सम्यक्त्वधर्म से विचलित नहीं हुआ, न ही उसके मन में निग्रंथ साधुओं के प्रति भक्ति या अनुराग की दृढ़ता में कमी आयी। इस परीक्षा में श्रेणिक के उत्तीर्ण हो जाने के बाद दर्दुरांक देव ने एक गर्भवती साध्वी का-सा रूप बनाया और शरीर को अलंकार से सुसज्जित करके वह राजा के सामने से होकर जाने लगा। राजा ने पूछा- "तुम तो साध्वी हो, फिर यह गर्भ कैसे रह गया?" उसने कहा- "भगवान् महावीर की सभी साध्वियाँ ऐसा ही काम करती हैं।" इस पर राजा ने कहा- "अशुभ कर्मों के कारण यह तो तेरे ही गलत कारनामे हैं। दूसरा कोई भी साधु-साध्वी तेरे सरीखे बिलकुल नहीं होते।" दर्दुराकदेव ने राजा श्रेणिक को देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा पर अटल जानकर प्रकट होकर उसकी प्रशंसा की; और उसे एक हार और दो गोले भेंट देकर वह देव देवलोक को लौट गया। राजा ने वह हार चिल्लणारानी को और दो गोले नंदारानी को दे दिये। चिल्लणा के हाथ में राजा के द्वारा दिया हुआ हार देखकर नंदारानी के मन में ईर्ष्या पैदा हुई कि 'चिल्लणा को तो हार और मुझे केवल ये दो गोले! मैं क्या करूँ इनका?" यों क्रोध में बड़बड़ाते हुए उसने दोनों गोले एक खंभे पर = 383

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