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श्री उपदेश माला गाथा २८०-२८३ गतियों के सुख और दुःख का वर्णन भी जिंदा रहकर मनुष्य वर्णन करे, फिर भी वर्णन करने में समर्थ नहीं होता ।।२७९।।
कक्खडदाहं सामलि-असिवण-वेयरणि-पहरणसएहिं । जा जायणाओ पायंति, नारया तं अहम्मफलं ॥२८०॥
शब्दार्थ - 'नरक के जीवों को अत्यंत तेज जलती आग में डालकर पकाया जाता है, सेमर के पेड़ के तीखे पत्तों से उनका अंगछेदन होता है, तलवार की नोक जैसे तीखे दुःखदायी पत्ते वाले वृक्षों के जंगल में परिभ्रमण करना पड़ता है, वैतरणी नाम की नदी का गर्मागर्म शीशे के समान जल पीना पड़ता है, और कुल्हाड़ा, फरसा आदि सेंकड़ों प्रकार के शस्त्रों से अंग काटे जाने से बड़ी पीड़ा पाता है। यह सब यातनाएं अधर्म, अनीति, अन्याय इत्यादि अधर्मकृत्य का फल है' ।।२८०।।
अब तिर्यंच-गति के दुःखों का वर्णन करते हैं
तिरियाकसंकुसारानिवाय-यह-बंधण-मारण-सयाई । . न वि इहयं पायिंता, परत्थ जड़ नियमिया हुँता ॥२८१॥
शब्दार्थ - तिर्यंच-योनि में हाथी, घोड़ा, बैल आदि को अंकुश, चाबुक, जमीन पर गिराने, लकड़ी आदि से मारने, रस्सी, साँकल आदि से बांधने और जान से मार डालने इत्यादि के जो सैकड़ों दुःखों के अनुभव होते हैं। वह ऐसे दुःख नहीं पाता, बशर्ते कि पूर्वजन्म में स्वाधीन धर्म-नियमादि का पालन करता हो ।।२८१।।
अब मनुष्यगति के दुःखों का वर्णन करते हैं
आजीवसंकिलेसो, सुक्खं तुच्छं उवद्दवा बहुया । नीयजणसिट्टणा वि य, अणिट्ठवासो य माणुस्से ॥२८२॥
शब्दार्थ - और मनुष्य-जन्म में भी जिंदगी भर मानसिक चिंता, अल्पकाल स्थायी तुच्छ विषयसुख, अग्नि, चोर आदि का उपद्रव, नीच लोगों की डांट फटकार, गाली-गलौज आदि दुर्वचन सहन करना और अनिष्ट स्थान में परतंत्रता से रहना पड़ता है। ये सब दुःख के हेतु है। इसीलिए मनुष्य-जन्म में भी सुख नहीं है ।।२८२।।
चारगनिरोह-वह-बंध-रोग-धणहरण-मरण-वसणाई। मणसंतावो अजसो, विग्गोवणया य माणुस्से ॥२८३॥
शब्दार्थ - और मनुष्य-जन्म में किसी भी अपराध के कारण कारागृह में बंद होना, लकड़ी आदि से मारपीट, रस्सी, सौंकल आदि से बंधन, वात, पित्त और कफ से उत्पन्न रोग, धन का हरण, मरण, आफत, मानसिक उद्वेग, अपकीर्ति और अन्य भी बहुत प्रकार की विडंबनाएं दुःख का कारण है। मनुष्य-लोक में भी सुख कहाँ है? ।।२८३।। .
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