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श्री उपदेश माला गाथा ३४४-३४८
पासत्थादिका वर्णन उनकी सेवा से न कतराए
जड़ ता असक्कणिज्जं, न तरसि काऊण तो इमं कीस ।
अप्पायत्तं न कुणसि, संजम - जइणं जईजोग्गं ? ॥३४४ ॥ शब्दार्थ - हे शिष्य ! यदि तूं साधुप्रतिमा, तपस्या आदि क्रिया करने में अशक्त है तो इस आत्मा के अधीन साधु-योग्य संयम, यतना और पूर्वकथित क्रोधादि वश करने में क्यों प्रमाद करता है? अर्थात् तपस्या की शक्ति न हो तो क्रोधादि पर विजय पाने का यत्न कर ।। ३४४ ।।
जायंमि देहसंदेहयंमि, जयणाए किंचि सेविज्जा । अह पुण सज्जो य निरुज्जमो य तो संजमो कत्तो ? ॥३४५॥
शब्दार्थ - किसी साधु के शरीर में महारोगादि कष्ट उत्पन्न होने पर यतना पूर्वक सिद्धांत की आज्ञा को लक्ष्य में रखते हुए अपवाद - मार्ग में वह अशुद्धआहारादि सेवन करे। परंतु बाद में जब शरीर निरोगी हो जाय, तब भी यदि वह साधु प्रमादी बनकर अपवाद रूप अशुद्ध आहार- पानी ही लेता रहता है; शुद्ध आहार पानी लाने में उद्यम नहीं करता तो उसे संयम कैसे कहा जा सकता है? कदापि नहीं। क्योंकि आज्ञा-विरुद्ध आचरण करना संयम नहीं कहलाता ।। ३४५ ।
मा कुणउ जड़ तिगिच्छं, अहियासेऊण जड़ तरड़ सम्मं । अहियासिंतस्स पुणो, जड़ से जोगा न हायंति ॥ ३४६ ॥ शब्दार्थ - यदि साधु के शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न हुई हो और वह उसे समभावपूर्वक सहन कर सकता हो, और उसे सहन करते हुए प्रतिलेखना आदि संयम क्रियाओं में कोई अड़चन न आती हो, मन-वचन-काया के योगों (प्रवृत्तियों) में कोई क्षीणता, दुर्बलता या रुकावट न आती हो तो साधु उस व्याधि के निवारण ( प्रतीकार) के रूप में श्रीसनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह औषधोपचार ( इलाज ) न करावे। यदि वह रुग्ण साधु उस महारोग को सहन न कर सके अथवा सहन करने से उसकी संयम - करणी में बाधा पहुँचती हो तो वह उसकी योग्य चिकित्सा करावें ।। ३४६ ।। निच्चं पवयणसोहाकराण, चरणुज्जयाण साहूणं । संविग्गविहारीणं, सव्यपयत्तेण कायव्यं ॥३४७॥
शब्दार्थ - सदा प्रवचन (जिनशासन) की प्रभावना (शोभा) बढ़ाने वाले, चारित्र पालने में उद्यत और मोक्षाभिलाषा से विहार करने वाले साधु को सभी प्रयत्नों से पूरी ताकत लगाकर सेवाभक्ति करनी चाहिए। क्योंकि साधुओं की सेवा से शीघ्र आत्मकल्याण होता है ।। ३४७ ।।
हीणस्स वि सुद्धपरूवगस्स, नाणाहियस्स कायव्यं । जणचित्तग्गहणत्थं, करिंति लिंगावसेसे वि ॥३४८॥
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