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आचरण में शिथिलता
में किसी को अपने समान नहीं मानता ।।३८१।।
श्री उपदेश माला गाथा ३८२-३८५
सच्छंदगमण-उट्ठाण-सोयणो, भुंजए गिहीणं च । पासत्थाई द्वाणा, हवंति एमाइया एए ॥ ३८२॥ शब्दार्थ - अपने गुरु को पराधीन व अकेले छोड़कर स्वच्छंदता पूर्वक जो इधर-उधर घूमता-सोता-उठता है; तथा गृहस्थों के बीच में भोजन करता है; ये सब लक्षण पार्श्वस्थादि साधु के हैं । । ३८२ ।।
भावार्थ - यह बात ३८० वीं गाथा में आ चुकी है; फिर भी इस गाथा में दुबारा कहे जाने का कारण 'गुरु आज्ञा के बिना गुणप्राप्ति नहीं हो सकती,' इस बात को खासतौर से बताते हैं।
यहाँ शंका होती है कि तब फिर इस जगत् में इस काल में कोई सच्चा साधु है ही नहीं ? यदि है तो वह कैसा होता है? इस बात का समाधान करने के लिए कहते हैं
जो हुज्ज उ असमत्थो, रोगेण व पिल्लिओ झुरियदेहो । सव्यमवि जहाभणियं कयाड़ न तरिज्ज काउं जे ॥३८३ ॥ सो वि य निययपरक्कमववसायधिईबलं अगूहिंतो । मुत्तूण कुडचरियं, जड़ जयड़ अवस्स जई ॥ ३८४ ॥ युग्मम्
शब्दार्थ - जो साधु स्वाभाविक रूप से असमर्थ - अशक्त हो, अथवा श्वास, ज्वरादि रोग से पीड़ित हो और जिसका शरीर लड़खड़ा रहा हो और इस कारण, जिनेश्वर - भगवान् कथित संयम- संबंधी सारी क्रियाओं का यथोक्त रूप से आचरण करने में कदाचित् समर्थ न हो; तथापि वह दुर्भिक्ष और रोगादि आफतों के समय में भी शरीरबल और मनोबल को छिपाता नहीं; कपट का आश्रय छोड़कर, चारित्र में यथाशक्ति उद्यम करता रहता है, वही वास्तव में सच्चा साधु संयति कहलाता है।। ३८३-३८४।।
अब मायावी-कपटी साधु का स्वरूप बताते हैं
अलसो सढोऽवलित्तो, आलंबणतप्परो अइपमाई । एवंटिओ वि मन्नइ, अप्पाणं सुट्ठिओ मि ति ॥ ३८५ ॥ शब्दार्थ - जो धर्मक्रिया करने में आलसी, मायावी, अभिमानी, गलत आलंबन लेने को तैयार रहता हो, तथा निद्रा विकथादि प्रमाद के दोषों से पूर्ण होने पर भी 'मैं अपनी आत्मा में सुस्थिर संयमी साधु हूँ" इस प्रकार अपने आपको मानता है। ऐसे धर्माचरण में मायावी को बाद में पश्चात्ताप करना पड़ता है ।। ३८५ ।।
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