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स्थिरवासी भी आराधक साधु
श्री उपदेश माला गाथा ३८७-३८८ सामने ले गये। राजा ने उस चोर को धमकाया कि सच्ची बात कह दे; नहीं तो तुझे मौत के घाट उतार दिया जायेगा। तब प्राण जाने के भय से चोर ने कहा"क्षमा करें महाराज! हमें तो कपटक्षपक तापस जो घर बताता है, उसी घर में हम चोरी करते हैं।" अतः राजा ने तापस-सहित उन तमाम चोरों को पकड़ मंगवाया और सभी चोरों को मरवा दिया; केवल एक तापस को जीवित रखा। परंतु उसकी दोनों आँखें निकलवा दी। इससे वह तापस वेदना के मारे छटपटाने लगा। मन में पश्चात्ताप करने लगा कि 'हाय! धिक्कार है मुझे! मैं ब्राह्मण होकर कपट तापस का वेष धारण कर अनेक लोगों को ठगा। मैंने लोगों को बहुत दुःख दिया, अपनी आत्मा को भी मैंने मलिन बनाया; मैं इस जन्म और अगले जन्म दोनों को हार गया हूँ| कोई मनुष्य अशुभकार्य करे तो भी वह निन्दा का पात्र होता ही है; परंतु तपस्वी होकर जो पापकर्म करता है वह तो अत्यंत निन्दा का पात्र होता है और वह अत्यंत मलिन भी है। इस तरह पश्चात्ताप करके अपनी आत्मा को कोसता हुआ वह तापस अत्यंत दुःखी हो गया।
इसी तरह जो जीव धर्मकार्य में कपट करता है, वह अत्यंत दुःखी होता है; यही इस कथा का भावार्थ है ॥३८६।।
अब विराधक का स्वरूप कहते हैं
एगागी पासत्थो, सच्छंदो ठाणवासि ओसन्नो । दुगमाई संजोगा, जह बहुया तह गुरु हुँति ॥३८७॥
शब्दार्थ – १. अपनी स्वच्छंद-मति से एकाकी रहने वाला, २. ज्ञानादि से विमुख (पासत्थ), ३. गुरु की आज्ञा नहीं मानकर स्वच्छंदता से चलने वाला, ४, हमेशा एक ही स्थान पर जमकर रहने वाला और ५. प्रतिक्रमणादि क्रिया में शिथिल रहने वाला इन दोषों के साथ द्विकादिकसंयोग से अर्थात् दो दोष, तीन दोष, चार दोष
और पांच दोष। एक दोष एक दोष के साथ ज्यों-ज्यों जुड़ते जाते हैं, त्यों-त्यों दोषों का गुणाकार होता जाता है। और ऐसा साधु जितने-जितने अधिक दोषों का सेवन करता जाता है, उतना-उतना वह अधिकाधिक विराधक होता जाता है ।।३८७।।
अब आराधक का स्वरूप कहते हैंगच्छगओ अणुओगी, गुरुसेवी अनियवासि अणियओ गुणाउत्तो ।
संजोएण पयाणं, संजम-आराहगा भणिया ॥३८८॥
शब्दार्थ - १. गच्छ में रहने वाला, २. सम्यग्ज्ञानादि का हमेशा अभ्यास करने में उद्यमी, ३. गुरु की सेवा करने वाला, ४. अनियतवासी अर्थात् मासकल्पादि नियमानुसार विहार करने वाला और ५. प्रतिक्रमणादि सम्यक् क्रियाकांडों में दत्तचित्त
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