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लाभालाभ दृष्टांत एवं अगीतार्थ साधु के लक्षण श्री उपदेश माला गाथा ३६३-३६५ का विचारकर करने योग्य कार्य करना और छोड़ने योग्य कार्य छोड़ देना ही ईष्ट है ।। ३९२ ।।
भावार्थ – धनाकांक्षी वणिक् जिस वस्तु में लाभ देखता है, उस वस्तु को ले लेता है जिसमें नुकसान देखता है, उसे छोड़ देता है। वैसे ही मुनिराज भी लाभालाभ का विचार करते हैं। उन्हें ज्ञानादि का लाभ (आय) और ज्ञानादि की हानि (व्यय) इन दोनों की तुलना करके स्व कर्तव्य कार्य करना चाहिए। । ३९२ ।। धम्मंमि नत्थि माया, न य कवडं आणुवत्तिभणियं वा ।
फुडपागडमकुडिल्लं, धम्मवयणमुज्जयं जाण ॥ ३९३॥
शब्दार्थ - साधुधर्म में माया है ही नहीं; क्योंकि माया और धर्म दोनों में परस्पर विरोध है। धर्म में दूसरे को ठगना भी नहीं होता और कपट से लोकरंजन के लिए मायायुक्त वचन भी नहीं होते। अय भाग्यशाली ! धर्मवचन तो स्पष्ट अक्षरों वाले, प्रकट रूप और माया रहित, सरल और मोक्ष के कारण हैं; इसे तूं भलीभांति समझ ले ।।३९३।।
न वि धम्मस्स भडक्का, उक्कोडा वंचणा य कवडं वा ।
निच्छम्मो किर धम्मो, सदेवमणुयासुरे लोए ॥ ३९४॥
शब्दार्थ - और इस शुद्ध धर्म की साधना में कोई आडंबर नहीं है; या कोई बनावट - दिखावट नहीं है, तथा 'यदि तूं मुझे अमुक वस्तु दे तो मैं धर्म करू" इस प्रकार की सौदेबाजी (तृष्णा) भी नहीं है; दूसरों को ठगने के लिए भी यह धर्म नहीं हैं परंतु विमानवासी देव, मर्त्यलोकवासी मनुष्य और पातालवासी असुरों सहित तीनों जगत् में धर्म को सर्वत्र निष्कपट निर्दोष ही श्री तीर्थंकर भगवान् ने बताया है।।३९४।। भिक्खू गीयमगीए, अभिसेए तह य चेव रायणिए । एवं तु पुरिसवत्थं, दव्वाइ चउव्विहं सेसं ॥ ३९५॥
शब्दार्थ – कोई साधु स्थानांग- समवायांग व छेदसूत्रों का जानकार गीतार्थ हो, अथवा कोई इन शास्त्रों से अनभिज्ञ अगीतार्थ हो, कोई उपाध्याय या आचार्य हो और कोई स्थविरादि या रत्नाधिक होते हैं; उन सभी को इसी तरह ज्ञानादि गुण की दृष्टि से पुरुषार्थ का विचार करना चाहिए और अन्य पदार्थों का भी द्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव, इन चारों की अपेक्षा से विचार करना चाहिए। अर्थात्-लाभालाभ का विचार करने वाले को पहले चारों ओर से सभी पहलुओं को लेकर किसी वस्तु के विषय में विचार करना चाहिए ।। ३९५ ।
1. वर्तमान में पत्रिका में सोने की चेन, अंगुठी आदि का प्रलोभन छपवाकर धर्म करवाया जाता है। क्या उससे धर्म होता है ? चतुर्विध संघ के लिए विचारणीय है।
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