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श्री उपदेश माला गाथा ३५२-३५५ पासत्थादिका वर्णन उनकी सेवा से न कतराए हांकता है कि 'हम भी उत्कृष्ट साधु हैं? हम उनसे किस बात में कम हैं, वह अच्छे सुसाधुओं तपस्वियों की हीलना (बदनामी) करता है। (उस में सम्यक्त्व हो तो) उसका सम्यक्त्व नाजुक है; किसी समय भी टूट सकता है ।।३५१।।
ओसन्नस्स गिहिस्स व, जिणपवयणतिव्यभावियमइस्स ।
कीरइ जं अणवज्ज, दढसम्मत्तस्सऽवत्थासु ॥३५२॥
शब्दार्थ - जो जिनेश्वर भगवान् के प्रवचन (धर्मसंघ) के प्रति अत्यंत भावितमति (अनुरक्त) है और जिसका सम्यक्त्व दृढ़ है, वह अगर शिथिलाचारी, पासत्थादि साधु हो अथवा श्रावक, उसकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और अपवाद आदि कारणवश सेवा भी की जाय तो कोई दोष नहीं है ।।३५२।।।
पासत्थोसन्नकुसीलणीयसंसत्तजणमहाछंदं । नाऊण तं सुविहिया, सव्यपयत्तेण वज्जिति ॥३५३॥
शब्दार्थ - ज्ञान, दर्शन और चारित्र की भलीभांति आराधना न करने वाला (पासत्थ), चारित्र में शिथिलाचारी (अवसन्न), शीलाचार से भ्रष्ट (कुशील), अविनयपूर्वक पढ़ने व ज्ञान की विराधना करने वाले (नीच), जहाँ जैसा संग मिले वहाँ उसकी संगति से वैसा बन जाने वाला (संसक्त) और अपनी स्वच्छन्द (उच्छृखल) बुद्धि से कल्पना करके उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाला (यथाच्छंदी); इन सबका भलीभांति स्वरूप जानकर सुविहित साधु सर्व-उपायों से उनसे दूर रहते हैं। क्योंकि उनका चारित्र नष्ट होने के कारण उनका संग करने योग्य नहीं ।।३५३।।
अब पार्श्वस्थादि के लक्षण कहते हैं
बायालमेसणाओ, न रखइ धाइसिज्जपिंडं च । आहारेई अभिक्खं, विगईओ सन्निहिं खाइ ॥३५४॥
शब्दार्थ - जो आहार के बयालीस दोषों से नहीं बचता; दोषयुक्त आहार लेता है, धात्रीपिंड (किसी बच्चे को खिलाने पर जो आहार मिले वह) ले लेता है तथा शय्यातरपिंड भी ग्रहण कर लेता है, बिना ही कारण हमेशा दूध, दही, घी आदि विकृति-(विग्गई) जनक पदार्थों को खाता है तथा जो बार-बार खाता रहता है, रातदिन चरता रहता है, या दिन में लाकर रात को रखता है; उस संचित पदार्थ को दूसरे दिन में खाता है; वह पार्श्वस्थ कहलाता है ।।३५४।।
सूरप्पमाणभोई, आहारेई अभिक्खमाहारं । न य मंडलीइं भुंजड़, न य भिक्खं हिंडई अलसो ॥३५५॥ शब्दार्थ - जो सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पूरे दिन भर खाता रहता है,
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