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श्री उपदेश माला गाथा ३४६-३५१
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पासत्थादिका वर्णन उनकी सेवा से न कतराए शब्दार्थ – कोई साधु सिद्धांत (शास्त्र) के ज्ञान की विशुद्ध प्ररूपणा करने वाला हो, किन्तु संयममार्ग की क्रिया में शिथिल हो, फिर भी उसकी सेवा करना उचित है। उस समय मन में यों सोचना चाहिए कि और
लोगों को धन्य है कि स्वयं गुणवान होने पर भी वे उपकारबुद्धि से निर्गुणी की भी सेवा (वैयावृत्य) करते हैं, इस तरह लोगों के चित्त का समाधान व संतोष करने के लिए भी कोरे वेषधारी की सेवा करे। क्योंकि अन्य भोले लोगों के दिल में ऐसा विचार न उठे कि यह साधु परस्पर जलते हैं, अपने समवेषी की भी सेवा नहीं करते । । ३४८ । । अब लिंग (वेष) धारी साधु का स्वरूप बताते हैं
दगपाणं पुप्फफलं, अणेसणिज्जं गिहत्थकिच्चाई | अजया पडिसेवंति, जड़वेसविडंबगा नवरं ॥३४९॥
शब्दार्थ – असंयमी-शिथिलाचारी सचित्त जल का सेवन करते हैं, सचित्त फल-फूल आदि का उपभोग करते हैं, आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहारादि ग्रहण करते हैं; गृहस्थ के समान आरंभ-समारंभ आदि सावद्यकर्म करते हैं और संयम के प्रतिकूल आचरण करते है। वे साधुवेष की केवल विडंबना (बदनाम) करने वाले हैं। वे थोड़ा-सा भी परमार्थ सिद्ध नहीं कर सकते । । ३४९ ।।
ओसन्नया अबोही, य पवयणउब्भावणा य बोहिफलं । ओसन्नो वि वरं पिहु, पययणउब्भावणापरमो ॥३५०॥ शब्दार्थ-भावार्थ - साधुधर्म की मर्यादा के विरुद्ध उपर्युक्त आचरण करके जो भ्रष्टचारित्री हो जाता है, वह इस जन्म में प्रत्यक्ष अपमानित व निदिन्त होता ही है, अगले जन्म में भी उसे बोधि (सद्धर्म के ज्ञान) की प्राप्ति नहीं होती। क्योंकि प्रवचन (शासन) की प्रभावना ही बोधिफल का कारण है। इसीसे आत्मार्थी मुनिवर की उन्नति हो सकती है। प्रवचन की निन्दा या बदनामी करके उसे नीचा दिखाने से बोधिलाभ नहीं हो सकता। मगर यदि कोई साधक किसी प्रबलकर्म के कारण संयममार्ग में शिथिल हो गया, लेकिन भवभीरु है, आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप) करता है और आत्मार्थी मुनियों की प्रशंसा करता है, सिद्धांत की शुद्ध प्ररूपणा करके प्रवचनप्रभावना करता है, तो वह भी श्रेष्ठ समझा जाता है ।। ३५० ।।
गुणहीणो गुणरयणायरेसु, जो कुणइ तुल्लमप्पाणं । सुतवस्सिणो अ हीलइ, सम्मत्तं कोमलं ( पेलवं ) तस्स ॥३५१॥ शब्दार्थ - जो चारित्र आदि गुणों में स्वयं हीन हो, फिर भी साधु-गुणों के समुद्र रूप साधुओं के साथ अपनी तुलना करता है। अर्थात् अपनी बड़ाई करके डींक
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