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श्री उपदेश माला गाथा ३६६-३७२
पासत्थादि साधुओं के लक्षण शब्दार्थ - जो मार्ग में चलते समय अचित्तजल-गवेषणादिरूप यतना नहीं रखता, पावों में जूते के तलों का उपयोग करता है, और अपने पक्ष के साधुश्रावकवर्ग में तथा दूसरे पक्ष के अन्य धर्म संप्रदायवालों में अपमान प्राप्त कर वर्षाऋतु में भी विहार करता है ।।३६८।।
__संजोयड़ अड़बहुयं, इंगाल सधूमगं अणट्ठाए ।
भुंजइ रूयबलट्ठा, न धरेइ अ पायपुंछणयं ॥३६९॥
शब्दार्थ - जो साधु स्वाद के लिए अलग-अलग पदार्थों को मिलाता है; अतिमात्रा में आहार करता है, रागबुद्धि से स्वादिष्ट आहार करता है और अमनोज्ञ व रूखा भोजन मुंह बिगाड़कर खाता है। क्षुधावेदनीय अथवा वैयावृत्य आदि के कारण वगैर ही अपने रूप और बल को बढ़ाने के लिए विविध पौष्टिक धातु आदि रसायनों का सेवन करता है, तथा जयणा के लिए रजोहरण व पादपोंछन भी नहीं रखता।।३६९।।
अट्ठमछट्ठचउत्थं, संवच्छरचाउमासपक्नेसु । न करेइ सायबहुलो, न य विहरइ मासकप्पेणं ॥३७०॥
शब्दार्थ- सुख का तीव्र अभिलाषी जो पासत्थादि साधु सांवत्सरिक पर्व पर अट्ठम तप (तेला) चातुर्मासिक पर्व पर छट्ठ (बेला) और पाक्षिक (पक्खी) दिन पर चउत्थभक्त (उपवास) आदि तप नहीं करता और न मासकल्प की मर्यादा से नवकल्पी विहार करता है ।।३७०।।
नीयं गिण्हइ पिंडं, एगागिअच्छए गिहत्थकहो । पावसुयाणि अहिज्जइ, अहिगारो लोगगहणंमि ॥३७१॥
शब्दार्थ - जो प्रतिदिन एक ही घर से आहार-पानी नियमित ग्रहण करता है, समुदाय में न रहकर अकेला ही रहता है, गृहस्थसंबंधी कथा करता है, पापशास्त्रों-ज्योतिष तथा वैद्यक आदि का अध्ययन करता है तथा लोकरंजन के लिए चमत्कार, कौतुक या लौकिक लोगों की बातों में हाँ में हाँ मिलाकर बड़प्पन प्राप्त करता है; परंतु स्वयं संयम क्रिया करके महत्ता प्राप्त नहीं करता ।।३७१।।
परिभवइ उग्गकारी, सुद्धं मग्गं निगहए बालो । विहरइ सायागरुओ, संजमविगलेसु खित्तेसु ॥३७२॥
शब्दार्थ - और जो मूर्खतावश उग्रविहारी मुनियों की निंदा करता है, उपद्रव करता-कराता है, लोगों के सामने शुद्ध मोक्षमार्ग छिपाता है और जिस क्षेत्र में सुसाधु नहीं विचरते, उस क्षेत्र में सुखशीलता से घूमता है ।।३७२।।
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