________________
श्री उपदेश माला गाथा ३०५-३०६
क्रोधादि के पर्यायवाची शब्द और स्वरूप
हीला निरोययारित्तणं, निरवणामया अविणओ य ।
पर गुणपच्छायणया, जीवं पाडिंति संसारे ॥ ३०५ ॥ युग्मम् शब्दार्थ - सामान्य अभिमान, जाति आदि का मद, अहंकार, दूसरे के दोषों. का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना, अपनी प्रशंसा करना अथवा अपने उत्कर्ष की डींग हांकना, दूसरे का अपमान करना, निंदा करना, दूसरे के गुणों में भी दोष (नुक्स) निकालना, दूसरे की हीन जाति आदि प्रकटकर उसे नीचा दिखाना, किसी का भी उपकार नहीं करना, अक्कड़पन, गुरु को देखकर खड़े नहीं होना, उन्हें आसन आदि नहीं देना; ये सभी मान के ही रूप होने से अभिमान के पर्यायवाचक हैं। इनका सेवन करने से जीव चतुर्गति रूपी संसार में चक्कर खाता है। इसीलिए मान शत्रु का काम करने वाला है, ऐसा समझकर इसका त्याग करें ।। ३०४-३०५ ।। अब माया के पर्यायवाचक शब्द कहते हैं
मायाकुडंगपच्छण्णपावया, कुड - कवडवंचणया । सव्वत्थ असमायो, परनिक्खेवावहारो य ॥३०६ ॥
छल-छोम-संवइयरो, गूढायारत्तणं मई - कुडिला । वीसंभघायणं पि य, भयकोडिसएस वि नडंति ॥३०७॥ युग्मम्
शब्दार्थ - सामान्य माया, गाढ़ निबिड़ माया, छिपे-छिपे पापकर्म करना; कूट-कपट, धोखेबाजी, ठगी, सर्वत्र अविश्वास, (अत्यंत वहम) असत्प्ररूपणा करना, दूसरे की धरोहर (अमानत) हड़प जाना, छल, अपने स्वार्थ के लिए पागल बनना, माया से गुप्त रहना, कुटिलता, वक्रमति और विश्वासघात करना, ये सभी माया रूप होने से माया के पर्यायवाची हैं। इस माया से जीव सौ करोड़ जन्मों तक संसार में दुःखी होता है। अर्थात्-माया से बांधे हुए कर्म करोड़ों जन्मों में भोगे बिना नहीं छूटते । इसीलिए इसका त्याग करना चाहिए ।। ३०६-३०७ ।। अब लोभ के समानार्थक शब्द कहते हैं
लोभो अइसंचयसीलया य, किलिट्ठत्तणं अइममत्तं । कप्पण्णमपरिभोगो, नट्ठ-विणट्ठे य आगल्लं ॥३०८॥
मुच्छा अइबहुधणलोभया य, तब्भावभावणा य सया । बोलंति महाघोरे, जम्ममरणमहासमुद्दमि ॥ ३०९ ॥ युग्मम् शब्दार्थ - सामान्य लोभ, अनेक किस्म की वस्तुओं का अतिसंचय करना, मन में क्लिष्टता, वस्तु पर अत्यंत ममता, खाने-पीने आदि की उपभोग्य वस्तु पास में होने पर भी अत्यंत लोभवश उसका सेवन न करना और कृपणता के कारण खराब 343