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श्री उपदेश माला गाथा २६६-२६६ यतना और इर्यासमितियाँ एवं कषाय का स्वरूप २. क्रोधादि चार कषायों को रोकना, ३. ऋद्धि, रस और साता इन तीन गारवों (गों) का निवारण करना, ४. पांच इन्द्रियों को वश करना, ५. आठ प्रकार के मदों का त्याग करना, ६. नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति का पालन करना, ७. वाचना आदि पांच प्रकार का स्वाध्याय करना, ८. दस प्रकार का विनय करना, ९. बाह्य और आभ्यंतरभेद से बारह प्रकार का तप करना, तथा १०. अपनी शक्ति को नहीं छिपाना, (यह द्वार गाथा है अब क्रमशः द्वारों का वर्णन करते हैं) ।।२९५।।
आगे की गाथा में यतना का ही निर्देश करते हैं
___ जुगमित्तंतरदिट्टी, पयं-पयं चक्नुणा विसोहिंतो । _अव्यक्खित्ताउत्तो, इरियासमिओ मुणी होई ॥२९६॥
शब्दार्थ - मार्ग में चलते समय गाड़ी के जुड़े जितने फासले तक (चार हाथ प्रमाण क्षेत्र के अंदर) दृष्टि रखने वाले, कदम-कदम पर आँखों से भूमि का अच्छी तरह अवलोकन करने वाले तथा शब्दादिविषयों से रहित स्थिर मन वाले होने से धर्मध्यान में ही रहने वाले मुनि इर्यासमिति-पालक कहलाते हैं ।।२९६।।
___कज्जे भासइ भासं, अणवज्जमकारणे न भासइ य । विगहविसुत्तियपरिवज्जिओ, य जड़ भासणासमिओ ॥२९॥
शब्दार्थ - मुनिराज काम पड़ने पर उपदेश, पठन-पाठनादि विशेष काम पड़ने पर निरवद्य भाषा बोलते हैं, बिना कारण वे नहीं बोलते। चार विकथाएं और संयम की विराधना के कारणभूत विरुद्ध वचन नहीं बोलते। ऐसे दुर्वचनों का वे चिन्तन भी नहीं करते। ऐसे मुनि भाषासमिति बोलने में यतनाशील (सावधान) कहलाते हैं ।।२९७।।
___ बायालमेसणाओ, भोयणदोसे य पंच सोहेइ ।
सो एसणाइसमिओ, आजीवी अन्नहा होइ ॥२९८॥
शब्दार्थ - जो बयालीस प्रकार के एषणा संबंधी आहार-दोष तथा संयोग आदि पांच प्रकार के भोजन करने के दोषों से बचकर शुद्ध आहार करता है; वह साधु एषणा-समितिवान (आहार में उपयोग वाला) कहलाता है। इससे विपरीत जो अशुद्ध और दोष युक्त आहार लेता है, वह आजीविकाकारी कहलाता है। अर्थात् वह साधुवेष धारण करके सिर्फ पेट भरने वाला कहलाता है ।।२९८।।
पुब्धिं चक्खूपरिविय, पमज्जिउं जो ठवेड़ गिण्हइ या ।
आयाणभंडमत्तनिकख्नेवणाए समिओ मुणी होइ ॥२९९॥ शब्दार्थ - जो मुनि पहले आँखों से अच्छी तरह देखभाल कर और फिर
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