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आत्मार्थी का लक्षण और प्रमादी का अफसोस श्री उपदेश माला गाथा २६२-२६५ पछताना पड़ेगा- "आह! अब क्या करूँ! अब तो शरीर में शक्ति नहीं रही." इस प्रकार तुझे अफसोस करने का समय आयेगा ।।२९१।।
लद्धेल्लयं च बोहिं, अकरितोऽणागयं च पत्थिंतो । अन्नं दाई बोहिं, लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं? ॥२९२॥
शब्दार्थ-भावार्थ - 'हे मूर्ख! तूं इस जन्म में जिनधर्म प्रास करके उसका आचरण नहीं करता और अगले जन्म में मुझे जिनधर्म प्राप्त हो,' ऐसी प्रार्थना कर रहा है। भला, दूसरे जन्म में वह धर्म कहाँ से मिलेगा; जबकि इस जन्म में प्राप्त सामग्री का यथाशक्ति उपयोग नहीं किया? इस जन्म में प्राप्त साधनों का यथोचित उपयोग करने वाला ही आगामी जन्म में उस सुख को प्राप्त कर सकता है ।।२९२।।
पुनः धर्म में उद्यमरहित पुरुषों को उपदेश देते हैं
संघयण-कालबल-दूसमारुयालंबणाइ पित्तूणं । सव्यं चिय नियमधुरं, निरुज्जमाओ पमुच्वंति ॥२९३॥
शब्दार्थ - निरुद्यमी आलसी जीव, 'अब तो पहले आरे जैसा बलवान संघयण नहीं है, अब तो दुष्काल है' प्रथम आरे जैसा आज बल नहीं रहा; इस समय पांचवां आरा चल रहा है, और निरोगी शरीर नहीं है, इसीलिए धर्म कैसे हो सकता है? इस प्रकार के आलंबनों का सहारा लेकर प्रास हुए चारित्र, क्रिया, तप आदि सर्व नियमों को छोड़ बैठता है। ऐसा प्रमादी जीव स्व पर का विनाश करता है। परंतु ऐसे आलंबनों की ओट लेना ठीक नहीं है। समयानुसार आलस्य छोड़कर यथाशक्ति धर्म में उद्यम करना चाहिए ।।२९३।।
कालस्स य परिहाणी, संयम जोगाई नत्थि खित्ताइं । जयणाए वट्टियव्यं, न हु जयणा भंजए अंगं ॥२९४॥
शब्दार्थ - "काल दिनोंदिन हीन (पतन का) चला आ रहा है और संयम के योग्य ऐसे क्षेत्र भी वर्तमान में नहीं रहे, इसीलिए क्या करना चाहिए?" इस प्रकार के शिष्य के प्रश्न के उत्तर में गुरुमहाराज कहते हैं- "यतना पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए। यतना रखने से अवश्य ही चारित्र रूपी अंग का विनाश नहीं होता। इसीलिए यतना पूर्वक यथाशक्ति चारित्र पालन में उद्यम करना चाहिए" ।।२९४।।
समिई-कसाय-गारव-इंदिय-मय-बंभचेरगुत्तीसु ।. .. सज्झाय-विणय-तव-सत्तिओ अ जयणा सविहियाणं ॥२९५॥
शब्दार्थ - सुविहित मुनियों की जयणा-यतना कर्तव्य करण-अकर्तव्य त्याग निम्न स्थानों में, कार्यों में होती है-१. सदा इर्यादि पांच समिति का पालन करना,
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