Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 365
________________ मोक्षार्थि का कर्तव्य, आसन सिद्ध का लक्षण श्री उपदेश माला गाथा २८४-२८८ चिंतासंतावेहि य, दारिद्दरुयाहिं दुप्पउत्ताहिं । लद्धण वि माणुस्सं, मरंति केई सुनिविण्णा ॥२८४॥ __ शब्दार्थ - मनुष्य-जन्म पाकर भी कई लोगों को कुटुंब-परिवार के भरणपोषण आदि की चिन्ता सताती रहती है, चोर, डाकू लूँटेरे आदि का रात-दिन डर रहता है; पूर्वजन्म में किये हुए दुष्कर्मो के फल स्वरूप गरीबी होती है, क्षयादि रोग के कारण अत्यंत दुःखित होना पड़ता है और अंत में मृत्यु का दुःख भी महाभयंकर है। इसीलिए चिन्तायुक्त मनुष्य-जन्म निष्फल है ।।२८४।। अतः अमूल्य मनुष्य-जन्म प्राप्त कर धर्मकार्य में पुरुषार्थ करना चाहिए। देवताओं को भी सुख नहीं है, इस संबंध में बताते हैं देवा वि देवलोए, दिव्याभरणाणुरंजियसरीरा । जं परिवडंति तत्तो, तं दुक्खं दारुणं तेसिं ॥२८५॥ ___ शब्दार्थ - देवलोक में दिव्य-अलंकारों से सुशोभित शरीर वाले देवताओं को भी वहाँ से च्यवन करके अशुचि से भरे हुए गर्भवास में आना पड़ता है, वह उनके लिए अतिदारुण दुःख है। इसीलिए देवलोक में भी सुख नहीं है ।।२८५।। तं सुरविमाणविभवं, चिंतिय चवणं च देवलोगाओ । अइबलियं चिय जं न वि, फुट्टइ सयसरं हिययं ॥२८६॥ शब्दार्थ - देवलोक का वह प्रसिद्ध अत्यंत अद्भुत ऐश्वर्य छोड़ने और उस देवलोक से च्यवन का मन से विचार करके घंटे के लोलक की तरह दोनों और से . मार पड़ती है वैसे ही देवलोक के जीव को एक और सुखवैभव छोड़ने का दुःख और दूसरी ओर मृत्युलोक में गंदे अशुचिपूर्ण गर्भावास में उत्पन्न होने का महादुःख होता है। ऐसा विचार करते हुए भी उसका अत्यंत कठोर व बलिष्ठ हृदय फूट नहीं जाता।।२८६।। और फिर देवगति के दारुण दुःखों का वर्णन करते हैं ईसा-विसाय-मय-कोह-माया-लोभेहि, एवमाईहिं । देवा वि समभिभूया, तेहिं कत्तो सुहं नाम? ॥२८७॥ शब्दार्थ - देवों में भी परस्पर ईर्ष्या होती है, दूसरे देवों के द्वारा किये हुए तिरस्कार से विषाद होता है, अहंकार, अप्रीति रूप क्रोध, असहनशीलता, माया, कपटवृत्ति, लोभ और आसक्ति इत्यादि मन के विकारों से देव भी दबे हुए रहते हैं। वास्तव में उन्हें भी सुख कहाँ से मिल सकता है? ।।२८७।। धम्म पि नाम नाऊण, कीस पुरिसा सहति पुरिसाणं? । सामित्ते साहीणे, को नाम करिज्ज दासत्तं? ॥२८८॥ 338

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