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गौरव, ईद्रियवशीभूत के फल
श्री उपदेश माला गाथा ३२५-३२८ अरसं विरसं लूहं, जहोववन्नं च निच्छए भोत्तुं । निद्धाणि पेसलाणि य, मग्गड़ रसगारवे गिद्धो ॥३२५॥
शब्दार्थ - रसगौरव में लोलुप साधु भिक्षा के लिए घूमते समय स्वाभाविक प्रास हुए नीरस, जीर्ण, ठंडे, बासी और वाल आदि रूखेसूखे आहार-पानी को खाना नहीं चाहता; परंतु घी आदि से बना हुआ स्निग्ध, स्वादिष्ट, पौष्टिक मनोज्ञ आहार (दाताओं से) मांगता है या उसकी इच्छा करता है। उस साधु को रसगौरव अर्थात् जिह्वा के रस के गौरव में लोलुप जानना ।।३२५।। अब सातागौरव के बारे में कहते हैं
सुस्सूसई सरीरं, सयणासणवाहणपसंगपरो । सायागारवगुरुओ, दुक्खस्स न देइ अप्पाणं ॥३२६॥
शब्दार्थ - अपने शरीर की शुश्रूषा-स्नानादि से मंडित करने वाला और कोमल गुदगुदाने वाली शय्या तथा बढ़िया, कीमती आसन; पादपीठ और कारण बिना किसी (नदी पार होने आदि) गाढ़ कारण के बहाने से नौका आदि सवारी का उपयोग करने में आसक्ती करने वाला व सातागारव से बोझिल बना हुआ साधु अपने शरीर को जरा भी कष्ट नहीं देता। इसे ही सातागौरव समझना ।।३२६।।
अब इन्द्रियवशीभूत के संबंध में कहते हैं
तवकुलच्छायाभंसो, पंडिच्चप्फसणा अणिट्ठपहो । वसणाणि रणमुहाणि य, इंदियवसगा अणुहवंति ॥३२७॥
शब्दार्थ - इन्द्रियों का गुलाम बना हुआ जीव, बारह प्रकार के तप, कुल और अपनी प्रतिष्ठा का विनाश करता है; ऐसा विषयासक्त जीव अपने पांडित्य को मलिन कर देता है। उसके अनिष्टपथ अर्थात् दीर्घ-संसारमार्ग की वृद्धि होती है; उन्हें अनेक प्रकार के आफतों, कष्टों यहाँ तक कि मृत्यु वगैरह कष्ट तक का सामना करना पड़ता है; किसी समय युद्ध के मोर्चे पर भी जाना पड़ता है। इन्द्रियों के दासों को ये सब दुःखद अनुभव होते हैं ।।३२७।।
___ सद्देसु न रंजिज्जा, रुवं दटुं पुणो न विक्खिज्जा । गंधे रसे अ फासे, अमुच्छिओ उज्जमिज्ज मुणी ॥३२८॥
शब्दार्थ - संयमधारी साधु, चंदन, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों में, मिष्टान्न या शक्कर आदि मीठे तथा चटपटे, तीखे, खट्टे रसयुक्त पदार्थों के स्वाद में, सुकोमल शय्या आदि के स्पर्श में, वीणा, मृदंगादि की ध्वनि में तथा स्त्री के संगीत के शब्दों में आसक्त न हो तथा मनोहर स्त्री तथा उनके अंगोपांगों का सौंदर्य देखकर बार-बार 348