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स्वजन भी अनर्थकर, मित्र चाणक्य की कथा श्री उपदेश माला गाथा १५० सरोवर में छिपाकर कपड़े धो रहे एक धोबी को डराकर भगा दिया और स्वयं धोबी का स्वांग रचकर कपड़े धोने लगा। उस सैनिक ने जब चन्द्रगुप्त का पता पूछा तो चाणक्य ने पहले की तरह उसे अंगुली के इशारे से तालाब में बताया और जब वह उसे पकड़ने के लिए तालाब में घुस रहा था, तभी उसकी गर्दन काट ली। उसके बाद दोनों दोनों घोड़ों पर सवार होकर आगे बढ़े। दोपहर में चन्द्रगुप्त को भूख लगी तो चाणक्य उसे गाँव के बाहर बिठाकर स्वयं गाँव में आया। दही और भात खाकर सामने से आता हुआ एक ब्राह्मण उसे मिला। चाणक्य ने उससे पूछा"भट्टजी! आप क्या भोजन करके आये हैं?" ब्राह्मण बोला- "मैं दही-चावल खा कर आया हूँ।" चाणक्य ने सोचा-"अगर इस समय मैं शहर में भिक्षा लेने जाऊंगा तो काफी समय लगेगा; इतनी देर में शायद नंदराजा के सैनिक आकर चन्द्रगुप्त को पकड़कर मार डालें। अतः इस ब्राह्मण का ही पेट चीरकर दही-चावल दोने में भरकर क्यों न ले जाऊं!" चाणक्य ने वैसा ही करके उस दही-चावल के भोजन से चन्द्रगुप्त को तृप्त किया। शाम को वे दोनों किसी गाँव में पहुँचे वहाँ चाणक्य भिक्षुकवेष में किसी बुढ़िया के यहाँ भिक्षा के लिए जा पहुँचा। बुढ़िया ने अभी-अभी अपने बालकों के लिए एक थाली में गर्म-गर्म राब परोसी थी। उनमें से एक बच्चे ने थाली के बीच में हाथ डाला, जिससे उसका हाथ जल गया। वह रोने लगा। यह देख बुढ़िया ने कहा- "कालमुंहे! तूं भी उस चाणक्य के समान मूर्ख ही रहा मालूम होता है!" यह सुनते ही चाणक्य ने पूछा-"माजी! चाणक्य कैसे मूर्ख हुआ?' बुढ़िया बोली-"सुनो! चाणक्य आगे, पीछे और आसपास के गाँवों और नगरों को फतेह किये (जीते) बिना ही एकदम पाटलिपुर जीतने गया। इसीलिए उसे हारकर भागना पड़ा। इसी तरह मेरा यह पुत्र भी आसपास की ठंडी हुई राब को छोड़कर बीच की गर्म राब में हाथ डालने गया, इससे उसका हाथ जल गया और वह रोने लगा। यह मूर्खता नहीं तो क्या है?" वृद्धा की प्रेरणा हृदयंगम करके चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर हिमालय की ओर गया। वहाँ उसने पर्वतराजा के साथ मैत्री की। कुछ दिनों बाद पर्वतराजा को आधा राज्य देने का वचन देकर चाणक्य उसकी विशाल सेना लेकर आसपास के अनेक देशों को जीतता हुआ पाटलीपुत्र पहुँचा। वहाँ नंदराजा के साथ युद्ध किया। इस युद्ध में नंदराजा हार गया। उसने नगर से निकलने के लिए चाणक्य से धर्मद्वार मांगा। चाणक्य ने यह स्वीकार किया। अतः नंदराजा अपनी पत्नी, पुत्री और कुछ सारभूत धन साथ लेकर रथ में बैठकर रवाना हुआ। नगर के मुख्यद्वार में प्रवेश करते समय नंदराजा की रथ में बैठी हुई पुत्री चन्द्रगुप्त का रूप-लावण्य देखकर उस पर मोहित
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