Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 361
________________ समकित व समकित का फल श्री उपदेश माला गाथा २६८-२७० की थी। उस समय सरस्वतीदेवी ने प्रत्यक्ष होकर मुझे अंबरालम्बिनी विद्या दी थी। सरस्वती देवी ही मेरी विद्यागुरु है । " त्रिदण्डी के इस प्रकार असत्य कहते ही आकाश में अधर लटकता हुआ उसका त्रिदंड खटाक से जमीन पर आ गिरा। उसे देखकर त्रिदण्डी अत्यंत लज्जित हुआ । उपस्थित लोग भी उसकी हंसी उड़ाने और फटकारने लगे। इससे दुःखित होकर वह वहाँ से चुपचाप चला गया। जैसे वह त्रिदण्डी विद्यागुरु का नाम छिपाने से अत्यंत दुःखी हुआ, वैसे ही जो कुशिष्य अपने गुरु का नाम छिपाता है, वह दुःखी और धिक्कार का पात्र होता है; यही इस कथा का तात्पर्य है ॥२६७|| सयलंमि वि जीयलोए, तेण इहं घोसियो अमाघाओ । इक्कं पि जो दुहत्तं, सत्तं बोहेड़ जिणवयणे ॥२६८॥ शब्दार्थ - जो व्यक्ति इस संसार में जन्म-मरण के दुःख से पीड़ित एक भी प्राणी को श्रीजिनवचन का बोध कराता है, वह इस १४ रज्जू प्रमाण लोक में अमारी पटह से घोषणा कराने सरीखा लाभ प्राप्त करता है; क्योंकि एक भी व्यक्ति जिनशासन को भलीभांति प्राप्त कर लेने पर अनंत - जन्म-मरण के चक्र से बच जाता है ।। २६८।। समत्तदायगाणं दुप्पडियारं भवेसु बहुसु । सव्वगुणमेलियाहि वि, उवयारसहस्सकोडीहिं ॥ २६९॥ शब्दार्थ - सम्यक्त्व- (बोधीबीज) प्रदाता गुरुजनों के उपकार का बदला चुकाना अनेक जन्मों में भी दुःशक्य है। क्योंकि अनेक भवों में भी गुरुदेव के करोड़ गुना उपकारों से उपकृत व्यक्ति सारे गुणों द्वारा दो - तीन-चार गुना प्रत्युपकार मिलाकर भी अनंतगुना उपकार तक नहीं पहुँच सकता ।। २६९।। इसीलिए सम्यक्त्वदाता धर्मगुरु का उपकार दुनिया में सर्वोत्कृष्ट है। उनकी भक्ति करनी चाहिए। अब सम्यक्त्व का फल बताते हैं सम्मत्तंमि उ लद्धे, ठड्याई नरयतिरियदाराई । दिव्याणि माणुसाणि य, मोक्खसुहाई सहीणाई ॥२७०॥ शब्दार्थ - सम्यक्त्व प्राप्त होने पर उस जीव के नरक और तिर्यंच गति के बहुत-से द्वार बंद हो जाते हैं। यानी इन दोनों गतियों में उसका जन्म नहीं होता । क्योंकि समकितधारी मानव प्रायः देवायु का बंध करता है। और देव प्रायः मनुष्यायु बांधता है। इसीलिए सम्यक्त्वी के दोनों अशुभगतियों के द्वार बंध हो जाते हैं। देव, मनुष्य और मोक्ष संबंधी सुख उसके हस्तगत हो जाते 1120011 प्रकांतर से सम्यक्त्व का फल बताते हैं 1. जो अपने दीक्षा गुरु का नाम न लिखकर प्रशिष्य' शब्द का प्रयोग करते हैं वे भी गुरु का नाम छुपाने के पाप के भागीदार बनते हैं। 334

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