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श्री उपदेश माला गाथा १५१ स्वजन भी अनर्थकर, संबंधी परशुराम-सुभूमचक्री की कथा हो गयी। चन्द्रगुप्त के प्रति अपनी पुत्री का स्नेहाकर्षण देखकर उसे रथ से वहीं उतार दी। वह उसी समय चन्द्रगुप्त के रथ में बैठ गयी। सहसा रथ के नौ आरे टूट गये। यह देखकर चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से कहा- "पिताजी नगरप्रवेश के समय यह अपशकुन हुआ मालूम होता है।" चाणक्य ने समझाया- "वत्स! यह अपशकुन नहीं, शुभ शकुन है। रथ के नौ आरे टूटे हैं, इससे तेरा राज्य नौ पीढ़ी तक स्थिर रहेगा।'' नंदराजा की कन्या के साथ नगर में आने पर चन्द्रगुप्त का विवाह हो गया।
___ नंदराजा जाते समय अपने महल में अत्यंत रूपवती एक विषकन्या को छोड़ गया था। चाणक्य ने अनुमान से उसे दोषदूषित जानकर पर्वतराजा के साथ उसका विवाह करा दिया। उसके अंगस्पर्श से पर्वतराजा के शरीर में जहर फैल गया। उस समय चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से कहा- "हमने पर्वतराजा की सहायता से राज्य पाया है, अतः ऐसे उपकारी मित्र की योग्य चिकित्सा करानी चाहिए।" चाणक्य ने उत्तर दिया-"बिना औषध से व्याधि जाती है अर्थात् यह अर्ध राज्य का मालिक बनेगा यह व्याधि है और युद्ध किये बिना मर रहा है तो मरने दो। ऐसा करके चाणक्य ने मरते हुए मित्र की उपेक्षा की।' आखिर जहर फैल जाने से पर्वत चल बसा। इस प्रकार चाणक्य ने अपना मतलब गांठकर अपने मित्र को बिलकुल छटका दिया ॥१५०॥
इसीलिए मित्रस्नेह भी कृत्रिम है, यही इस कथा का उपदेश है। निययाऽवि निययकज्जे, विसंवयंतमि हुँति खरफ़सा । जह राम-सुभूमकओ, बंभक्खत्तस्स आसि खओ ॥१५१॥
शब्दार्थ - स्वजनसंबंधी भी अपना काम बन जाने के बाद क्रूर और कठोर वचन बोलने वाले बन जाते हैं। जैसे परशुराम और सुभूम ने क्रमशः अपने ही स्वगोत्रीय ब्राह्मणों और क्षत्रियों का नाश किया था ।।१५१।।
• भावार्थ - परशुराम ने सात बार इस पृथ्वी को निःक्षत्रिय बनायी थी और सुभूमचक्री ने २१ बार पृथ्वी अब्राह्मणी कर दी थी; इन दोनों अकृत्यों में अपने स्वजन संबंधी लोगों का भी विनाश हुआ था। इसीलिए स्वजनस्नेह भी व्यर्थ है। इस संबंध में परशुराम और सुभूमचक्रवर्ती का उदाहरण दे रहे हैं
परशुराम और सुभूमचक्री की कथा
सुधर्मा देवलोक में विश्वानर और धन्वन्तरी नामक दो मित्रदेव थे। एक जैन था दूसरा तापस था। दोनों परस्पर धर्मचर्चा किया करते और अपने-अपने धर्म की
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