Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 329
________________ जापा/ उपाश्रयादि की चिंता श्री उपदेश माला गाथा २२०-२२१ पार कर लेता है। मगर जो श्रद्धारहित होकर धर्माचरण करते हैं, उनके पल्ले तो जन्म-मरण आदि का चक्कर ही पड़ता है ।।२१८-२१९।। । भावार्थ - इसीलिए घरबार छोड़कर दीक्षा लेने वाले प्रत्येक साधक को श्रद्धापूर्वक अहर्निश धर्माचरण में उद्यम करना चाहिए। अपनी भिक्षाचरी की क्रिया भी ४२ दोषों से रहित होकर गवेषणा-ग्रहणैषणा-परिभोगैषणा पूर्वक करनी चाहिए; तभी संसार-समुद्र को पार करने के लिए ली गयी मुनिदीक्षा और मानवजन्म सफल हो सकते हैं। अन्यथा, श्रद्धारहित की गयी धर्मक्रिया से मोक्ष के बदले संसार की ही साधना होती है ॥२१८-२१९।। कहा भी है क्रियाशून्यस्य यो भावो भावशून्यस्य या क्रिया । ___अनयोरन्तरं दृष्टं भानुखद्योतयोरिव ।।१२९।। अर्थात् - क्रियाशून्य व्यक्ति के भाव और भावशून्यव्यक्ति की क्रिया में इतना अंतर दिखता है, जितना सूर्य और जुगनू में है। क्रियाशून्य भाव सूर्य के सदृश है और भावशून्य क्रिया जुगनू के समान है ॥१२९।। मतलब यह है कि श्रद्धा और आचरण के गुणों से रहित साधक का जन्म और मुनिदीक्षा दोनों निष्फल हैं। जे घरसरणपसत्ता, छक्कायरिऊ सकिंचणा अजया । नवरं मोत्तूण घरं, घरसंकमणं कयं तेहिं ॥२२०॥ शब्दार्थ - जो साधु अपने घरबार आदि का त्याग करके फिर उपाश्रय आदि घरों की मरम्मत करवाने, उसे बनवाने आदि में फंस जाते हैं, वे हिंसादि आरंभो के भागी होने से ६ काय के जीवों (समस्त प्राणियों) के शत्रु हैं, द्रव्यादि परिग्रह रखने-रखाने के कारण वे सर्किंचन (परिग्रही) हैं और मन-वचन-काया पर संयम न रखने के कारण असंयत (असंयमी) हैं। उन्होंने केवल अपने पूर्वाश्रम (गृहस्थाश्रम) का घर छोड़ा और साधुवेष के बहानें नये घर (उपाश्रय) में संक्रमण किया है। यानी एक घर को छोड़कर प्रकारांतर से दूसरा घर अपना लिया है। उसका वेष केवल विडंबना के सिवाय और कुछ भी नहीं है ।।२२०।। उसुत्तमायरंतो, बंधड़ कम्मं सुचिक्कणं जीयो । संसारं च पवड्डइ, मायामोसं च कुव्वड़ य ॥२२१॥ शब्दार्थ - जो जीव सूत्र (शास्त्रों में उल्लिखित मर्यादा) के विरुद्ध आचरण करता है, वह अत्यन्तगाढ़-निकाचित रूप में चीकने ज्ञानावरणीय कर्मों का बंधन करता है; अपने आत्मप्रदेशों के साथ ऐसे स्निग्धकर्मों को चिपकाकर संसार की वृद्धि करता है। ऐसा करने के साथ-साथ यह मायामृषा (कपट सहित असत्याचरण-दंभ) 302

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444