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विनयपूर्वक विद्या
श्री उपदेश माला गाथा २६५ है न? तूं निर्विघ्न तो रहता है न?'' महादेवजी के प्रश्न सुनकर उसने उत्तर दिया"स्वामिन्! जब आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे चिन्ता किस बात की?'' यों कहकर वह भील चल दिया।
उसके चले जाने के बाद मुग्ध मूर्ति के पास आकर बोला- "शिवजी! आज मैंने आपका ऐश्वर्य अपनी आँखों से देख लिया। जैसा आपका यह भील सेवक है, वैसे ही आप दीखते हो! क्योंकि मैं प्रतिदिन पवित्रता पूर्वक केसर, चंदन तथा सुगंधित पुष्प, धूप आदि से आपकी पूजा करता हूँ; फिर भी आप मुझ पर कभी प्रसन्न नहीं होते, और न मेरे साथ कभी बातचीत ही करते हैं; लेकिन उस गंदे, कालेकलूटे और आपकी बेअदबी (आशातना) करने वाले भील के साथ प्रकट होकर प्रसन्न होकर बातचीत करते हो।" यह सुनकर महादेव ने कहा"वत्स! तुम्हारी और उस भील की भक्ति में कितना अंतर है, यह मैं कभी तुम्हें बताऊंगा।" मुग्ध शिवजी की बात सुनकर अपने घर चला गया। दूसरे दिन मुग्ध उसी तरह पूजा करने आया, तब उसने देखा कि शिवजी के ललाट पर रहने वाला तीसरा नेत्र किसी ने गायब कर दिया है।'' यह देख मुग्ध के मन में बड़ा खेद हुआ वह फूट-फूट कर रोने लगा-"अरे रे! यह क्या गजब हो गया? किस दुष्ट ने परमात्मा की तीसरी आँख निकाल ली? अब क्या होगा?" इस प्रकार काफी देर तक वह रोता रहा, फिर उसने पूजा आदि नित्य कृत्य पूर्ण किया।
कुछ समय बाद वह भील भी वहाँ आ पहुँचा। उसने जब महादेवजी की तीसरी आँख निकली हुई देखी तो कुछ देर तक तो वह भी मुग्ध की तरह अफसोस करता रहा। फिर उसने बाण से अपनी एक आँख निकाल कर शिवजी के कपाल पर लगा दी। जब तीनों नेत्र पूरे हो गये तब उसने प्रतिदिन की तरह पूजा की। उस समय शिवजी प्रकट होकर बोले- "वत्स! मैं आज तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। आज से तुझे बहुत सम्पत्ति मिला करेगी।'' भील को यों वरदान देकर शिवजी ने मुग्ध पुजारी से कहा- “देख लिया न तुमने, तुम्हारी और इस भील की भक्ति का अंतर? ऐसी हार्दिक भक्ति से देव प्रसन्न होते हैं, केवल बाह्य भक्ति से नहीं।" यों कहकर शिवजी अंतर्हित हो गये।
___जिस प्रकार उस भील ने शिवजी के आंतरिक भक्ति की; उसी प्रकार सुशिष्यों को अपने सुदेव तथा ज्ञानदाता गुरुदेव की शुद्ध मन से भक्ति करनी चाहिए, यह इस कथा का तात्पर्य है। 1. यह दृष्टांत एकदेशिय है भील की समर्पितता से संबंधित है। उसने जैसे पूजा की उसमें
सहमती नहीं है। 328