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श्री उपदेश माला गाथा २६६
विद्यादाता चाण्डाल की कथा सिंहासणे निसन्नं, सोवागं सेणिओ नरवरिंदो । विज्जं मग्गइ पयओ, इअ साहूजणस्स सुयविणओ ॥२६६॥
शब्दार्थ - मानव श्रेष्ठ श्रेणिक राजा ने स्वयं सिंहासन पर चांडाल को बिठाकर करबद्ध होकर नमस्कार करके उससे विद्या की याचना की थी, इसी तरह श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए मुनिवरों को भी गुरु के विनय करना आवश्यक है। यहाँ प्रसंगवश हम उस चाण्डल की कथा दे रहे हैं
विद्यादाता चाण्डाल की कथा मगधदेश की राजधानी राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक राज्य करता था। उसकी रानी चिल्लणा को एक बार गर्भ के प्रभाव से ऐसा दोहद (मनोरथ) पैदा हुआ कि "चारों ओर कोट व उद्यान वाले एक खम्भे पर टिके हुए महल में मैं निवास करूँ।" राजा ने अभयकुमार से यह बात कही। उसने देव की आराधना करके उस देव की सहायता से सर्व ऋतु विकासी फलों, फूलों और हरेभरे पेड़ों व चारों ओर कोटवाला एक एकस्तम्भी महल बनवा दिया। उसे देखकर रानी चिल्लणा अत्यंत प्रसन्न हो उठी, उसका दोहद पूर्ण हो गया। अब राजा श्रेणिक ने उस सर्व ऋतु विकासी फल-फूलों वाले बाग की सुरक्षा के लिए दिनरात चौबीसों घंटे पहरा देने वाले सुभट चारों ओर तैनात कर दिये, ताकि उस बगीचे का कोई एक पत्ता भी राजाज्ञा के बिना न तोड़ सके।
इधर राजगृही में ही एक विद्यासिद्ध चाण्डाल रहता था। उसकी पत्नी को गर्भ के प्रभाव से कार्तिक मास में आम खाने का दोहद पैदा हुआ। उसने अपने पति को अपना दोहद बताया। उसने सोचा- "बेमौसम में आम राजा के देव निर्मित उद्यान के सिवाय और कहीं नहीं मिल सकेगा। मगर वहाँ चौबीसों घंटे बड़ा सख्त पहरा लगा रहता है। इसीलिए विद्या प्रयोग से ही यह काम हो सकेगा।" मन में निश्चय करके चाण्डाल रात को उस उद्यान की ओर चल पड़ा। उद्यान किले में था। किले में पहरेदारों को खड़े देख चाण्डाल ने बाहर ही खड़े रहकर अपनी अवनामिनी विद्या के प्रयोग से एक आम्रवृक्ष की शाखा नीचे झुकाकर फुर्ती से फल तोड़ लिया। फिर उन्नामिनी विद्या के प्रयोग से उस शाखा को ऊपर जहाँ थी, वहीं कर दी। इस प्रकार चुपके से फल लाकर उसने अपनी पत्नी को दिया, जिससे उसका दोहद पूर्ण हुआ। प्रातःकाल जब रक्षकों ने एक आम्रवृक्ष की शाखा फलरहित देखी और किले के बाहर शाखा के नीचे मनुष्य के पैरों के निशान देखे तो उन्हें शक हुआ। उन्होंने राजा से इसकी शिकायत की। राजा ने अभयकुमार को
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