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श्री उपदेश माला गाथा २१६-२१६
आश्रव-संवर में विवेकी भी जो उसके आचरण में मद-विषय-कषाय-निद्रा-विकथा रूप पांच प्रकार के प्रमाद करता है; वह जीव इस संसार की चारों गतियों में अनंतबार चक्कर लगाता है।।२१५।।
अणुसिट्ठा य बहुविहं, मिच्छदिट्ठी य जे नरा अहमा । बद्धनिकाइयकम्मा, सुणंति धम्म न य करंति ॥२१६॥
शब्दार्थ - सम्यग्दर्शन-ज्ञानरहित मिथ्यादृष्टि या जो अधममनुष्य निकाचित रूप में ज्ञानावरणीयादि कर्मों के बंधन के कारण कदाचित् अनेक त्यागीजनों के धर्मोपदेश, प्रेरणा आदि से अथवा स्वजनों के अनुरोध से धर्मश्रवण तो कर लेते हैं; मगर भलीभांति धर्माचरण नहीं करते। सारांश यह है कि लघुकर्मी जीव ही धर्म की प्राप्ति कर सकते हैं ।।२१६।।
. पंचेव उज्झिऊणं पंचेव, य रखिऊण भावेणं ।
कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिगइमणुत्तरं पत्ता ॥२१७॥
शब्दार्थ - हिंसा आदि पाँच आश्रवों को छोडकर और अहिंसा आदि पांच महाव्रतों (संवरों) का आत्मा के शुभ भावों से रक्षण करके जो आठकर्म रूपी मल से सर्वथा मुक्त होकर निर्मल आत्मभाव को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही सर्वोत्कृष्ट सिद्धिगति को पाते हैं। इसीलिए हिंसादि पांच आश्रवों का त्याग और अहिंसादि पांच संवरों का अप्रमत्त रूप से पालन ही सिद्धिगति (मुक्ति) की प्राप्ति का कारण है।।२१७।।
नाणे दंसण-चरणे तव-संयम-समिइ-गुत्ति-पच्छित्ते । दम-उस्सग्गववाए, दव्याइ अभिग्गहे चेव ॥२१८॥ सद्दहणायरणाए निच्चं, उज्जुत्त-एसणाइ ठिओ । तस्स भयोयहितरणं, पव्यज्जाए जम्मं तु ॥२१९॥
शब्दार्थ - सम्यग् अवबोध रूप ज्ञान में, तत्त्वश्रद्धा रूप दर्शन में और आश्रवनिरोध-संवर (व्रत) ग्रहण रूप चारित्र में, बारह प्रकार के तप में, १७ प्रकार के संयम में, ईर्या-समिति आदि पांच समितियों में, मनोगुसि आदि निवृत्तिमय ३ गुप्तियों में, पांच इन्द्रियों के दमन (वशीकरण) में, शुद्धमार्ग के आचरण रूप उत्सर्ग (अथवा किसी प्रिय वस्तु का व्युत्सर्ग करने) में, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप ४ प्रकार के
अभिग्रह धारण करने में तथा श्रद्धा पूर्वक धर्माचरण करने में या पूर्वोक्त बातों में श्रद्धा पूर्वक प्रवृत्ति करने में जो साधक एषणादि-भिक्षाचरी-विधि में कमर कसकर जुटा रहता है; उस मुमुक्षु साधक का प्रवज्या (मुनि दीक्षा) से संसार-समुद्र-तरण अवश्य हो जाता है। यानी श्रद्धा पूर्वक धर्माचरण में जुटा रहने वाला संसारसमुद्र को अवश्य
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