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श्री उपदेश माला गाथा २२७ अधर्म-उत्तम संग-गिरिशुक और पुष्पशुक का दृष्टांत तापस-आश्रम दिखायी दिया। उस आश्रम के चारों ओर एक सुरम्य फूलवाड़ी थी, जिसमें एक ऊँचे पेड़ पर लटकते हुए पींजरे में एक तोता बंद था। उसने राजा को अपनी ओर आते देखकर जोर से पुकारा-तापसों पधारो पधारों! आपके आश्रम की ओर एक महान् अतिथि चला आ रहा है, उसका स्वागत और सेवाभक्ति करो। तोते की बात सुनते ही सभी तापस राजा के स्वागत के लिए पहुंचे और उसे सम्मान सहित अपने आश्रम में ले आये और स्नान-भोजनादि से राजा की सेवा की। इससे राजा अत्यंत संतुष्ट हुआ। स्वस्थ होकर राजा ने उस तोते से पूछा"शुकराज! मैंने तुम्हारे जैसा ही एक तोता भीलों की पल्ली में देखा था, उसने मुझे बांधने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु एक तुम हो; जिसने मेरी बड़ी सेवा भक्ति करायी। दोनों के स्वभाव में इतने बड़े अंतर का क्या कारण है?" तोते ने कहा"सुनिए, मैं इसका कारण बताता हूँ। कादम्बी नाम की महाटवी में हम दोनों भाई साथ-साथ रहते थे। एक ही माता-पिता की संतान होते हुए भी हम दोनों में अंतर का कारण यह बना कि एक दिन मेरे उस भाई (तोते) को भीलों ने पकड़ लिया
और उसे पर्वतीय प्रदेश में रखा, इसीलिए उसका नाम पर्वतशुक पड़ गया और मुझे तापसों ने पकड़कर इस पुष्पवाटिका में रखा, इसीलिए मेरा नाम पड़ा-पुष्पशुक! मेरा वह भाई रातदिन भीलों के सहवास में रहने के कारण भीलों की मारने-पीटने, बांधने, सताने आदि की बातें ही हमेशा सुनता; इससे उसने भीलों की-सी बातें ही सीखीं। और मुझे तापसों का सत्संग मिला। मैंने इनके उत्तम वचन सुने, इनके शुभगुणों की बातें ही मैंने सीखीं। इसीलिए मुझ में शुभ गुणों के संस्कार आये। राजन्! शुभ और अशुभ संगति ही इसमें कारण है। "यह आपने अपनी आँखों से देख लिया।" कहा भी है
__ महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारणं ।
गङ्गाप्रविष्टरभ्याम्बु, त्रिदशैरपि वन्द्यते ॥१३०।।
महानुभावों का उत्तम पुरुषों का संसर्ग किसके उन्नत्ति में कारणभूत नहीं बनता? मार्ग पर चलता पानी गंगा में प्रविष्ट होने पर देवता भी उसको वंदन करते है। देवों द्वारा भी वह पूजा जाता है ॥१३०।।
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह ।
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि ॥१३०।। अर्थात् - पर्वत के दुर्गम स्थानों पर वनचर लोगों के साथ घूमना अच्छा, लेकिन इन्द्र के भवनों में भी मूर्ख लोगों का संसर्ग करना अच्छा नहीं ॥१३०।। तोते की बुद्धिमत्ता पूर्ण बातें सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ ही देर
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