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श्री उपदेश माला गाथा २४७
शैलकाचार्य और पंथकशिष्य की कथा का वृत्तांत सुनकर थावच्चाकुमार भी उनके दर्शन-वंदन को गया। भगवान् के मुंह से संसारसागरतारिणी धर्मदेशना सुनकर थावच्चाकुमार का मन संसार से विरक्त हो गया। माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करके उसने एक हजार पुरुषों के साथ भागवती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के बाद उसने १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया।
__एक बार भगवान् अरिष्टनेमि की आज्ञा लेकर आचार्य थावच्चापुत्र अपने शिष्यसमुदाय-सहित शैलकपुर में आये। नगर का राजा उनको वंदन करने के लिए आया। मुनि से धर्मोपदेश सुनकर उसने उनसे श्रावकधर्म के १२ व्रत स्वीकार किये। वहाँ से विहार करके आचार्य थावच्चापुत्र सौगन्धिका नगरी में आये और वहाँ के 'नीलाशोक' उद्यान में बिराजे। उस नगरी में शुक नामक परिव्राजक का एक परमभक्त सुदर्शनशेठ रहता था। वह भी आचार्य के पास आया। उनसे धर्मचर्चा करके उसने प्रतिबोध प्राप्त किया और मिथ्यादर्शन व शौच-मूलक धर्म को छोड़कर जिनेन्द्रकथित विनयमूलक धर्म स्वीकार किया। शुकपरिव्राजक को जब इस बात का पता लगा तो वह अपने हजारशिष्यों सहित सुदर्शन सेठ के यहाँ पहुँचा। सुदर्शन से उसने पूछा- "सुदर्शन! सुना है, तुमने हमारे शौचमूलक धर्म को छोड़कर विनयमूलक धर्म ग्रहण किया है? मैं जानना चाहता हूँ कि वह धर्म तुमने किससे
और क्यों ग्रहण किया है?" सुदर्शन ने शांतभाव से कहा- "धर्म ग्रहण तो अपनी मर्जी पर निर्भर है। मुझे विनयमूलक धर्म सत्य जचा और मैंने इसी नगरी में बिराजित आचार्य थावच्चापुत्र से उसे ग्रहण किया है। आप चाहें तो मेरे साथ चलकर आचार्यश्री से धर्मचर्चा कर लें।" अतः शुक परिव्राजक सुदर्शन को साथ लेकर आचार्यश्री के पास पहुंचे। उन्होंने धर्म के संबंध में कई प्रश्न और शंकाएं उपस्थित की। लेकिन आचार्यश्री की अकाटय युक्तियों और उत्तर के सामने वे निरुत्तर हो गये। अन्ततः शुक परिव्राजक ने विनयमूलक धर्म को ही यथार्थ समझकर अपने हजार शिष्यों सहित आचार्यश्री से मुनि दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के बाद में उन्होंने क्रमशः १२ अंगशास्त्रों का अध्ययन किया। थावच्चापुत्र आचार्य ने उन्हें योग्य समझकर आचार्यपद दिया। और स्वयं ने एक हजार साधुओं के साथ शत्रुजय पर्वत पर एक मास की संलेखना की साधना स्वीकार करके अंत में केवलज्ञान और मुक्ति प्राप्त की।
एक बार विचरण करते हुए शुक्राचार्य अपने हजार शिष्यों के साथ शैलकपुर पधारे। शैलकराजा उन्हें वंदन करने आया। उनसे धर्मोपदेश सुनकर राजा को संसार से वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने पुत्र मंडुककुमार को राजगद्दी पर बिठाकर पंथक आदि ५०० मंत्रियों सहित मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। शैलक मुनि
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