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श्री उपदेश माला गाथा २५२
कण्डरीक और पुण्डरीक की कथा में आसक्त होने के कारण विहार के बारे में चुप रहे। फिर पुण्डरीक राजा स्थविर मुनियों को वंदन करके अपने मुनिभ्राता की प्रशंसा करने लगे- "भाई! धन्य है आपको! आप बड़े पुण्यवान हैं, कृतार्थ हैं; आपने उत्तम मनुष्य जन्म सफल बना लिया है; क्योंकि आप चारित्र अंगीकार करके तप-संयम की आराधना कर रहे हैं। मैं तो अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ; क्योंकि मैं राज्यसुख में मूर्च्छित हूँ।" इस प्रकार राजा के द्वारा कण्डरीक मुनि की बार-बार प्रशंसा किये जाने पर भी उनके मन में जरा भी प्रसन्नता पैदा नहीं हुई। आखिरकार लज्जावश उदास मन से कण्डरीक मुनि ने भी राजा से विहार की अनुमति मांगी और स्थविर मुनियों के साथ विहार कर दिया। परंतु मन में रह-रहकर पांचों इन्द्रियों के विषयभोगों की ललक उठती रही। अंततः एक हजार वर्ष तक पालन किये हुए चारित्र को मिट्टी में मिला देने वाले अशुभ परिणामों ने जोर पकड़ा और एक दिन वे अपने गुरुदेव से पूछे बिना ही चुपके से अकेले चल दिये और पुण्डरीकिणी नगरी जा पहुँचे। वहाँ राजमहल के निकटवर्ती अशोकवन में अशोकवृक्ष की शाखा पर अपने उपकरण टांगकर उसी वृक्ष के नीचे अनमना व चिन्तातुर होकर बैठ गये। सहसा उनकी धायमाता की दृष्टि उस पर पड़ी। धायमाता ने कण्डरीक के चेहरे पर से उसके दुःखित होने का अंदाजा लगाकर पुण्डरीक राजा को जाकर खबर दी। राजा सुनते ही भ्रातृ स्नेहवश उसके पास पहुँचा। उसके चेहरे पर से उसके मनोगत भावों को ताड़ कर राजा ने एक ओर ले जाकर उससे पूछा- "भाई! क्या आपकी इच्छा सांसारिक विषयभोगों के आस्वादन करने की हुई है? जो भी बात हो, आप निःसंकोच होकर साफसाफ कहो!" कण्डरीक ने सांसारिक सुखभोग और राज्यप्राप्ति की अपनी अभिलाषा को स्पष्ट किया। उदारमना पुण्डरीक राजा ने तत्काल अपने कुटुम्बियों को बुलाया और सबके साथ विचार विमर्श करके कण्डरीक का राज्याभिषेक कर दिया।
. कण्डरीक ने राजगद्दी पर बैठते ही बहुत दिनों से दबी हुई विषयेच्छाओं को उभारा। शरीर कमजोर था, पाचनशक्ति क्षीण हो चुकी थी, लेकिन डटकर स्वादिष्ट गरिष्ठ भोजन किया; अन्य विषयभिलाषाओं को भी वह तृप्त करने लगा। परिणामस्वरूप उसके शरीर में भयंकर वेदना हुई; लेकिन घरवालों व जनता ने किसी ने भी उसकी चिकित्सा आदि न करवायी, न ही सेवा की। सभी ने यही सोचा कि “इस पापात्मा ने इतने वर्षों के चारित्र को तिलांजलि देकर राज्य ग्रहण किया है; यह हमें क्या सुख देगा?'' कण्डरीक को मंत्री आदि के इस रूखे व उपेक्षाभरे व्यवहार से बड़ा दुःख हुआ और गुस्सा चढ़ा। उसने क्रोध में भन्नाते हुए
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