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शैलकाचार्य और पंथकशिष्य की कथा श्री उपदेश माला गाथा २४५-२४७
शब्दार्थ - अपरिमित, (अमर्यादित) असीम, अनंत तृष्णाएँ नरकगति में ले जाने वाली राहें हैं और बंधन आदि दोषों से घिरी हुई है। इसीलिए श्रावक असीम परिग्रह (तृष्णा) से विरत होता है ।।२४४।।
मुक्का दुज्जणमित्ती, गहिया गुरुवयण-साहुपडिवत्ती । मुक्को पपरिवाओ, गहिओ जिणदेसिओ धम्मो ॥२४५॥
शब्दार्थ - सुश्रावक दुर्जनों की मैत्री छोड़कर तीर्थंकर आदि गुरुओं के वचनों को मान्य करता है और साधुओं की विनयभक्ति करता है। वह सदा परनिन्दा से दूर रहता है और राग-द्वेष को छोड़कर जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट समताभाव रूपी धर्म को सादर ग्रहण करता है ।।२४५।।
तवनियमसीलकलिया, सुसावगा जे हवंति इह सुगुणा ।
तेसिं न दुल्लहाई, निव्वाणविमाणसुक्खाई ॥२४६॥
शब्दार्थ – जो बारह प्रकार के तप, श्रावकधर्म के उपयुक्त कई नियम तथा शील-सदाचार आदि गुणों से सम्पन्न सद्गुणी सुश्रावक होते हैं, उनके लिये निर्वाण या वैमानिक देवलोक के सुख कोई दुर्लभ नहीं है ।।२४६।।
अर्थात् स्वर्गसुखों का उपभोगकर वह क्रमशः मोक्षसुख भी प्राप्त कर लेता
सीएज्ज कयावि गुरु, तं पि सुसीसा सुनिउणमहुरेहिं । मग्गे ठवंति पुणरवि, जह सेलगपंथगो (पत्थियो) नायं ॥२४७॥
शब्दार्थ- किसी समय कर्मों की विचित्रता के कारण गुरु प्रमादवश होकर धर्ममार्ग से शिथिल-पतित-होने लगते हैं तो निपुण सुशिष्य उन्हें भी अत्यंत नैपुण्ययुक्त मधुरवचनों तथा व्यवहारों से पुनः सन्मार्ग (संयमपथ) पर स्थिर कर देते हैं। जैसे शैलक राजर्षि नामक गुरु को जाना-माना पंथक शिष्य सुमार्ग पर ले आया था ।।२४७।।
शैलकाचार्य और पंथकशिष्य की कथा
द्वारिकापुरी कुबेर निर्मित अलकापुरी की तरह शोभायमान थी। वहाँ श्रीकृष्ण वासुदेव राज्य करते थे। उसी नगरी में थावच्चा नामक एक सार्थवाह अपनी पत्नी के सहित रहता था। उसके थावच्चाकुमार नामक एक अत्यंत सुंदर पुत्र था। उसकी शादी बत्तीस सुंदरियों के साथ हुई थी। वह अपनी पत्नियों के साथ दोगुंदक देव के समान अनुपम सुखों का उपभोग कर रहा था। एक बार भगवान् श्रीअरिष्टनेमि द्वारिका नगरी में पधारें। बाहर के उपवन में बिराजें। उनके पदार्पण
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