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श्री उपदेश माला गाथा १७१
अर्णिकापुत्र की कथा तुम तो परदेशी हो, इसीलिए इसका वियोग मुझसे कैसे सहन होगा? अतः मैं अपनी बहन अर्णिका की शादी उसी के साथ कर सकता हूँ, जो शादी करने के बाद मेरे घर पर ही रहे। देवदत्त के लिए इतनी रियायत कर सकता हूँ कि बहन के एक पुत्र होने तक वह यहीं निवास करे तो मैं अर्णिका का उसके साथ विवाह कर सकता हूँ।" देवदत्त सारी बात मान गया और अर्णिका के साथ उसकी शादी हो गयी। शादी के बाद उसके साथ मनोवांछित विषयसुखोपभोग करते हुए काफी समय व्यतीत किया। समय पाकर अर्णिका गर्भवती हुई।
एक समय उत्तर मथुरा से देवदत्त के पिता का पत्र आया जिसमें लिखा था- - 'पुत्र! तुम्हें परदेश गये बहुत समय हो गया है। इसीलिए अब तुम जरा भी विलम्ब किये बिना जल्दी आ जाओ।' पिता का पत्र बार-बार पढ़ने से पिता के प्रति उसे अनिर्वचनीय प्रेमभाव जागृत हुआ । देवदत्त मन में विचार करने लगा" धिक्कार है मुझे ! मैं विषयाभिलाष के कारण यहाँ रहने के लिए वचनबद्ध हो गया और बूढ़े माता-पिता को छोड़कर यहाँ पड़ा हूँ।" अपने पति को खिन्न देखकर अर्णिका ने उसके हाथ से वह पत्र झपट कर ले लिया और उसे पढ़कर उसने वास्तविकता का पता लगा लिया । और स्वयं श्वसुर से मिलने को उत्कंठित हुई । अर्णिका के अत्यंत अनुरोध से भाई ने भी जाने की आज्ञा दे दी और अपने पति के साथ ससुराल चल पड़ी। मार्ग में पुत्र का जन्म हुआ। देवदत्त ने कहा-' -"अभी इसका नाम अर्णिकापुत्र रखेंगे; बाद में मेरे मातापिता जो नाम रखेंगे, वही मान्य करेंगे।" कुछ ही दिनों में वे दोनों घर पहुँचे और माता-पिता के चरणों में नमस्कार किया। पुत्र को देखकर पिता को बड़ी खुशी हुई। उन्होंने पूछा - " वत्स ! इतने अर्से तक वहाँ रहकर तूं ने क्या प्राप्त किया?" तब देवदत्त ने अर्णिका से जन्मे अपने पुत्र को पिता की गोद में बिठाया, और अपनी पत्नी को बताकर कहा - 'इतना प्राप्तकर मैं आया हूँ।' पौत्र और पुत्रवधू को देखकर माता - पिता बहुत खुश हुए। पिता ने अपने पौत्र का यथायोग्य नाम रखा, लेकिन वह अर्णिकापुत्र के नाम से ही विशेष प्रसिद्ध हुआ।
बचपन पार करके अर्णिकापुत्र जवान हुआ। परंतु विषयों से विरक्त होने से वैराग्य परायण होकर उसने चारित्र ग्रहण कर लिया। उसने आगमों का रहस्य जानकर अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर आचार्यपद प्राप्त किया। बाद में साधुसमुदाय के सहित विहार करते हुए पुष्पभद्रनगर पधारें। उसके बाद जो घटना हुई वह उपर्युक्त पुष्पचूला की कथा में पहले आ चुकी है ॥ १७१ ॥
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