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कितने शरीर, आहार, जल भोगा?
श्री उपदेश माला गाथा १६४-१६७ हा! जीव! पाव भमिहिसि, जाई जोणीसयाई बहुयाई । भवसयसहस्सदुल्लहं पि, जिणमयं एरिसं लद्धं ॥१९४॥
शब्दार्थ - अरे पापी जीव! लाखों जन्मों में भी अतिदुर्लभ और अचिंत्य चिंतामणि के समान श्रीजिनकथित धर्म को प्राप्त करके भी स्वच्छंदता के कारण उसकी आराधना नहीं की; इसीलिए तुझे एकेन्द्रियादि अनेक जातियों और शीतोष्णादि अनेक योनियों में सैकड़ों बार परिभ्रमण करना पड़ेगा ।।१९४।।
पायो पमायवसओ, जीयो संसारकज्जमुज्जुत्तो । . दक्नेह न निविण्णो, सोक्नेहिं न चेव परितट्टो ॥१९५॥
शब्दार्थ - यह पापी जीव विषय-कषायादि प्रमाद के वश होकर सांसारिक कार्यों में सदा उद्यमी रहा; और उनमें उसे विविध प्रकार के संयोग-वियोग अथवा जन्म-मरण के दुःख भी उठाने पड़े; लेकिन उन दुःखों के बावजूद भी उसे उनसे निर्वेद (वैराग्य) नहीं हुआ। और न इन्द्रिय-सुखों को पाकर भी वह संतुष्ट हुआ।।१९५।।
_ भावार्थ - इनके कारण वह जितना-जितना दुःख प्राप्त करता है, उतना-उतना पाप-कर्म अधिक करता जाता है और इन्द्रियसंबंधी सुखों से भी संतुष्ट नहीं होता; क्योंकि ज्यों-ज्यों उसे विषय सुख मिलता है, त्यों-त्यों वह नयेनये सुख की चाह करता जाता है। परंतु परमानंदकारी अतीन्द्रिय सुखदायी मोक्ष की साधना से विमुख ही रहता है ॥१९५।।
परितप्पिएण तणुओ, साहारो जइ घणं न उज्जमइ ।
सेणियराया तं तह, परितप्पंतो गओ नरयं ॥१९६॥
शब्दार्थ - यदि स्वतंत्र रूप से तप-संयम आदि की आराधना में विशेष रूप से उद्यम न किया जाता है तो बाद में उसे पापकर्म की निंदा गर्दा और पश्चात्ताप आदि से विशेष लाभ नहीं होता। वह लघुकर्मों का क्षय जरूर कर सकता है, परंतु महाकर्मों का नहीं। जैसे श्रेणिक राजा भी अंतिम समय में पश्चात्ताप करता रहा कि 'हाय! मैंने चारित्र अंगीकार नहीं किया।' फिर भी वह नरकगति में पहुँचा। इसीलिए पश्चात्ताप से स्वल्प कर्मों का ही क्षय होता है ।।१९६।।
___ जीवेण जाणिउ विसज्जियाणि, जाईसएसु देहाणि । थोवेहिं तओ सयलं पि, तिहुयणं हुज्ज पडिहत्थं ॥१९७॥
शब्दार्थ - विभिन्न अगणित जीव-योनियों में परिभ्रमण करते हुए जीव ने एकेन्द्रियादि सैकड़ों जातियों में शरीर को ग्रहण करके पहले के जितने शरीरों को
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