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श्री उपदेश माला गाथा १५०
स्वजन भी अनर्थकर, मित्र चाणक्य की कथा कुछ गाँव जागीरी में दे देता, किसी को कुछ देश, किसी को किले का अधिपति बना देता। संयोगवश घूमते-घामते चाणक्य भी एक दिन वहाँ आ पहुँचा। चाणक्य ने कुतूहलवश यह तमाशा देखा तो पास आकर उसने चन्द्रगुप्त से याचना की'राजन्! तुम सबको मनोवांछित वस्तु देते हो, मुझे भी कुछ इच्छित वस्तु दो।' इस पर चन्द्रगुप्त ने कहा-'ये सारी गायें मैं तुम्हें देता हूँ। इन्हें ले जाओ।' यह सुनकर चाणक्य बोला-"ये सारी गायें तो दूसरे की हैं, इन्हें मैं कैसे ले सकता हूँ।" इस पर चन्द्रगुप्त साहसपूर्वक बोला-"यः समर्थस्तस्येयं पृथ्वी" "जो समर्थ होता है, उसी की यह पृथ्वी होती है।'' चाणक्य ने दूसरे बालकों से पूछा- "यह लड़का किसका है?" उन्होंने कहा-"यह बालक एक परिव्राजक को दिया हुआ है, इसकी मां को उत्पन्न हुए चन्द्रपान के दोहद से यह बालक हुआ है, इसीलिए इसका नाम चन्द्रगुप्त रखा है।" यह सुनकर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से कहा-"वत्स! यदि तुझे राज्यप्राप्ति की इच्छा हो तो चल मेरे साथ, मैं तुझे राज्य दिलाऊंगा।" यह कहकर चन्द्रगुप्त को साथ लेकर चल पड़ा। धातुविद्या के प्रयोग से कुछ धन एकत्रकर चाणक्य ने थोड़ी-सी सेना इकट्ठी की और पाटलिपुत्रनगर के चारों ओर घेरा डाल दिया। नंदराजा को यह मालूम पड़ा तो उसने विशाल सेना लेकर युद्ध किया। युद्ध में चाणक्य की सेना हार गयी। फलतः चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर भाग गया। नंदराजा ने उसे पकड़ने के लिए पीछे-पीछे सेना दौड़ाई। एक सैनिक जब चाणक्य के नजदीक आ रहा था, तब तक उसने झटपट चन्द्रगुप्त को सरोवर में छिपा दिया और स्वयं किनारे पर आकर योगी के वेष में ध्यान लगाकर बैठ गया। सैनिक ने जब पूछा कि "योगीश्वर! आपने नंदराजा के शत्रु चन्द्रगुप्त को इधर से जाते हुए देखा है?" चाणक्य ने सरोवर में छिपे चन्द्रगुप्त को अंगुली के इशारे से बताया तो वह उसे पकड़ने के लिए घोडे से उतरकर सैनिक की वर्दी और हथियारों को उतारकर ज्यों ही जल में प्रवेश करता है, त्यों ही चाणक्य ने उसी की तलवार से उसकी गर्दन उड़ा दी। फिर उसने इशारे से चन्द्रगुप्त को बुलाकर घोड़े पर बिठाया। स्वयं भी बैठा और दोनों आगे चल दिये। रास्ते में चन्द्रगुप्त से चाणक्य ने पूछा- "वत्स! जब मैंने अंगुली के इशारे से उस सैनिक को तुझे बताया था, तब तेरे मन में क्या विचार उठे थे?" चन्द्रगुप्त बोला-"तात! मैंने यही सोचा कि आप जो कुछ कर रहे हैं, वह ठीक ही कर रहे हैं।" चाणक्य ने यह उत्तर सुनकर सोचने लगा-'यह चन्द्रगुप्त सुशिष्य के समान मेरा आज्ञाकारी बनेगा।"
चाणक्य और चन्द्रगुप्त इस प्रकार बातें कर रहे थे कि अचानक पीछे से एक सैनिक घोड़ा दौड़ाता हुआ वहाँ आ पहुँचा। चाणक्य ने फुर्ती से चन्द्रगुप्त को
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