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श्री उपदेश माला गाथा १५० स्वजन भी अनर्थकर, मित्र चाणक्य की कथा
अर्थात् - जाति चाहे रसातल में चली जाय; गुणसमूह भी चाहे नीचे गिर जाय; शील चाहे पहाड़ के किनारे से गिरकर चूर-चूर हो जाय; स्वजन-पारिवारिक जन चाहे आग में जलकर भस्म हो जाय; दुश्मन शौर्य पर चाहे शीघ्र वज्र गिर पड़े, हमें तो केवल धन से काम है, वही मिल जाय; जिस एक धन के बिना ये सारे गुण तिनके के टुकड़ों के समान है ।।१२४।।
चाणक्यपत्नी ने जब यह देखा कि मेरी बहनों से तो भाई सभी कामों में सलाह लेता है, मुझ से पूछता तक नहीं। मैं भी इसकी बहन हूँ। परंतु मेरे पास धन नहीं है, इसीलिए ही भाई मुझसे सीधे मुंह बात तक नहीं करता। इस प्रकार वह चिन्तातुर होकर मन ही मन खेद करने लगी। किसी तरह विवाहकार्य समाप्त होते ही दुःखित मन से घर चली आयी। चाणक्य ने अपनी पत्नी का चेहरा उतरा हुआ देखकर उद्विग्नता का कारण पूछा तो उसने सारी आपबीती सुना दी। चाणक्य को सुनकर बड़ी ग्लानि हुई। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह भी परदेश जाकर किसी न किसी तरह धन कमा कर लायेगा और अपनी पत्नी का मनोरथ पूर्ण करेगा। अतः पत्नी से कहकर वह परदेश रवाना हो गया। घूमता-घूमता वह कुछ ही दिनों में पाटलिपुत्र पहुँचा और नंदराजा को आशीर्वाद देकर उससे धन की याचना करने हेतु जब चाणक्य राजसभा में पहुँचा तो नंदराजा के मुख्य भद्रासन पर बैठ गया। दासी ने यह देखकर चाणक्य से कहा- "विप्रवर! नंदराजा के इस भद्रासन को छोड़कर दूसरे आसन पर बैठिए।" चाणक्य बोला-'दूसरे आसन पर तो मेरा कमण्डलु रहेगा।' दासी ने जब तीसरा आसन बताया तो चाणक्य ने अपना दण्ड रखकर कहा- 'इस पर तो मेरी माला रहेगी।' चौथे आसन की ओर संकेत किया तो उस पर माला रखते हुए कहा- 'इस पर तो मेरा दंड रहेगा।' दासी ने जब पांचवां आसन बताया तो उसने अपना यज्ञोपवीत उस पर रख दिया। इस तरह जब पांचों ही आसन रोक लिये तो दासी झल्लाकर बोली-"तुम तो कोई धूर्त मालूम होते हो। मैं तो समझती थी कि सरलता से मेरी बात मान जाओगे। इसके बदले तुमने पहले का आसन तो छोड़ा ही नहीं, बल्कि नये-नये और आसन भी रोक लिये।" यह कहकर दासी ने चाणक्य को लात मार दी।' लात लगते ही क्रुद्ध सर्प की तरह चाणक्य गुस्से में आकर खड़ा होकर फुफकारने लगा- "दुष्ट दासी! तेरी इतनी जुर्रत्! (हीम्मत) तीन कौड़ी की नौकरानी होकर तूं मेरा अपमान करती है। याद रख, तेरे इस परंपरागत नंदराजा को राजगद्दी से हटाकर इसके स्थान पर नये राजा को राजगद्दी पर न बिठा दूं तो मेरा नाम चाणक्य नहीं।" यों कहकर भन्नाता हुआ चाणक्य नगर से बाहर चला
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